शीतल पी सिंह-
ताविशी… आप उन्हें नहीं जानते ! मैं भी कितना जानता हूँ? पैंतीस छत्तीस बरस पहले लखनऊ के पत्रकारीय अड्डों, ख़ासकर तब के मुख्यमंत्री कार्यालय, एनेक्सी के सूचना विभाग के एक पी आर रूम में वे लगभग नियमित आने वाले पत्रकारों में थीं । हम लोग भी उस समय उसी क्रम में थे । वे निश्चय ही हमसे कुछ बड़ी थीं और सज्जनता के जितने शहरी मानदंड पुरुषों ने तय कर रक्खे हैं सबको जीती हुई मिलती थीं, फिर भी उन पर चुटकुले छिड़ते थे जिनसे नाराज़ होते मैंने उन्हें कभी न पाया । शायद ही किसी ने उन्हें कभी नाराज़ होते स्मृतियों में रख रक्खा हो !
लगभग चालीस बरस तक उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में तमाम अंग्रेज़ी हिंदी अख़बारों में वे राजनीतिक पत्रकार के रूप में शरीक रहीं पर कल लखनऊ ने कोरोना से टूटती उनकी साँसों को एक अदद एंबुलेंस देने में कोताही कर दी । हेमंत ने आख़िरी वक़्त में राज्य सरकार के एक उपलब्ध कैबिनेट मंत्री की हैसियत दांव पर लगाकर एंबुलेंस हासिल भी की पर ………..!
कोरोना के चलते आक्सीजन लेवल घटते जाने पर तीन दिन से उन्हें भर्ती करवाने के लिये लखनऊ के तमाम वरिष्ठ पत्रकार अपने अपने रसूख़ के प्रयोग में फेल होते गये जो बताता है कि तंत्र कितनी बुरी तरह फेल हो चुका है ? हम सब जलते हुए श्मसान में अपनी अपनी जान बचाते छिपते घूम रहे हैं और किसी की छोड़िए अपनी मदद के लिये भी “हेमंत” पर जा टिक रहे हैं! वो कितनी बार सिस्टम की कितने दोस्तों के लिए भरपाई कर सकेगा ।
मुझे सुबह ही पता चला, हेमंत से फ़ोन पर बात हुई जिसमें देर तक दोनों तरफ़ से फ़ोन पर मौन था , दरअसल हम रो रहे थे पर छिपा रहे थे !
अलविदा ताविशी