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आने वाला है 30 मई यानि हिन्दी पत्रकारिता दिवस : आइए, कुछ ग्रामीण पत्रकारिता की भी सुध लें

सुबह अखबार के बण्डल खोलने से शुरू हुई ग्रामीण पत्रकारिता शाम को समाचार मेल और व्हाटसअप से भेजने के बाद विराम ले लेती है। इस दिन भर के दौर में ईमानदारी से की गई पत्रकारिता में पहचान, सम्मान के अलावा कुछ भी नहीं। अपने पास अगर पैतृक पूंजी और व्यवस्था हो तो अलग बात नहीं तो बिना नौकरी और व्यापार के ग्रामीण पत्रकारिता सम्भव नहीं। अखबार से मिलने वाले मानदेय और विज्ञापन के कमीशन भर से पत्रकार का काम नहीं चलता।

एक दौर था जब अखबार बांटने वाले बहुत मिलते थे। अब मंहगाई के दौर में अखबार बांटने वाले मिलना कठिन है। अखबार के एजेन्ट का भी काम कर रहे ग्रामीण पत्रकार को अखबार की बचत एवं हाकरों द्वारा पैसा न वसूलने और वसूली लेकर भाग जाने जैसी समस्याओं से रूबरू होना पड़ता है। ऐसे में संस्थान एजेन्ट का साथ नहीं देते। बहुत प्रयास के बाद ही सप्लाई कम हो पाती है।

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वर्तमान समय में प्रतिस्पर्धा का दौर है। हर संस्थान इलाके में नम्बर एक की चाहत में एजेन्ट को जिले के प्रसार प्रभारी के अलावा ब्यूरो प्रमुख से उत्साहित कराकर अखबार बिकवाने का काम कर रहे हैं। घर परिवार की तमाम जिम्मेदारियों के बीच सिर्फ-सिर्फ पत्रकार रहना बहुत कठिन ही नहीं असम्भव है। जो लोग नाम और पहचान के दम पर बिचौलियागिरी करने के तरीके में माहिर हो जाते हैं उनके लिए यह डगर आसान हो जाती है। यदि यह नहीं सीख पाए तो पत्रकारिता के मूल्यों को बनाए रखने में आर्थिक दशा पर विचार कर निर्णय लेना होता है।

किसी बड़ी सी बड़ी खबर भेजने पर कोई ईनाम कभी नहीं मिलता लेकिन अन्य अखबारों में छपी खबर अपने अखबार में न छपने पर फटकार पक्की होती है। संस्थान के उच्चाधिकारियों की बैठक का र्फामूला आपकी बात सुनकर अपने टारगेट को पूरा कराना रहता है। अब धार-दार खबरों का दौर भी कमजोर हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में बहुत पत्रकार अभी भी स्तम्भ की तरह निर्भीक, निडर होकर समाचार संकलन और प्रेषण कर रहे हैं। यह बात अलग है कि बिना किसी डिग्री-डिप्लोमा और पहचान पत्र के ग्रामीण पत्रकार अपने नाम से अपनी जरूरतों को पूरा करने के साथ ही समाजसेवा का काम कर रहा है।

अब ग्रामीण इलाकों के लोग भी डिजिटल होने से समाचारों के आदान प्रदान और जनसमस्याओं, समाज की हलचलों को अखबार के अलावा फेसबुक, व्हाटसअप पर शेयर कर रहे हैं। अब वह किसी पत्रकार के सहारे नहीं कि अगर पत्रकार नहीं चाहें तो उनकी कोई नहीं सुनेगा अब ऐसा नहीं रहा।

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सरकार और समाज के बीच जो काम पत्रकारिता कर रही थी, आज काफी हद तक वही सोशल मीडिया कर रहा है। ऐसे दौर में जब किसी जागरूक व्यक्ति के हांथ में कैमरा वाला मोबाईल नेटवर्क से जुड़ा हुआ हो तो फिर उसकी हैसियत किसी पत्रकार से कम नहीं रह जाती। वह अपने मन की व्यथा कथा कहने के लिए आजाद है। हां इतना जरूर देखने में आता है कि उनके शब्द और वाक्यों का चयन बेहतर नजर नहीं आता। फिर भी अपनी भड़ास कहने के लिए काफी है। अपनी सीमाएं पार करने पर अब पत्रकार को भी खबर बनने में देर नहीं लगती। ध्यान रहे पैसा कमाने के लिए व्यापार नौकरी की राह अपनाकर आर्थिक आजादी पाएं। पैसे कमाने के चक्कर में पत्रकारिता क्षेत्र में गन्दगी फैलाकर पत्रकार समाज का अपमान न करें।

लेखक सुधीर अवस्थी ‘परदेशी’ भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के जिला हरदोई प्रभारी हैं.

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