मोदी मुख्यमंत्री थे तो लोकायुक्त नहीं बनने दिया था… प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोकपाल नहीं बनने दिया… सुप्रीम कोर्ट के डंडे के जोर से बना है लोकपाल… याद करें सात आठ बरस पहले लोकपाल के लिए हुए अन्ना आंदोलन के दौर की जब सड़कों पर उमड़े जनसैलाब से भारत सरकार भी सहम गई थी. भारतीय जनता पार्टी सहित सारी विरोधी पार्टियाँ अन्ना अनशनस्थल पर मत्था टेक रहीं थीं. मनमोहन सरकार बेकफुट पर आई और संसद के विशेष अधिवेशन के बाद लोकपाल/लोकायुक्त क़ानून बन गया.
अन्ना के सुर में सुर मिलाने वाली भाजपा पांच साल से केंद्र में सत्तारूढ़ है पर लोकपाल दूर-दूर तक नजर नहीं आया. लोकपाल और अन्ना आंदोलन के मार्फ़त सितारा नेता बने अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए. वहीँ साफ़ सुथरी इमेज की पुलिस अधिकरी रहीं लोकपाल की एक और पैरोकार किरण बेदी भाजपा के मार्फ़त उपराज्यपाल हो गईं. अलबत्ता अन्ना हजारे की बुरी गत हुई. वे दो दो बार आमरण अनशन पर बैठ चुके हैं पर ना तो लोकपाल बना और ना ही उन्हें कुछ हुआ.
मोदीजी ने लोकपाल क़ानून की चयन समिति में नेता प्रतिपक्ष के प्रावधान की आड़ लेकर पांच साल निकाल दिए क्योंकि लोकसभा में कांग्रेस के इतने सांसद नहीं हैं जो उसे प्रतिपक्ष का दर्जा मिलता. यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं था जो लोकपाल की राह में रोड़ा बनता क्योंकि कानून में संशोधन आसानी से हो सकता था. इससे धारणा पुख्ता हुई है कि मोदी लोकपाल/लोकायुक्त के खिलाफ हैं या फिर उन्हें लोकपाल से डर लगता है. दरअसल गुजरात का मुख्यमंत्री रहते उन्होंने वहां लोकायुक्त नियुक्त नहीं होने दिया जबकि एमपी में दशकों से यह संस्था काम कर रही है. केंद्र की मंशा से खफा सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की इस महीने नियुक्ति का अल्टीमेटम दे दिया. उधर लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे विशेष आमंत्रित की हैसियत से चयन में भागीदार ना बनने के स्टैंड पर कायम हैं.
पर सुप्रीम कोर्ट का अल्टीमेटम आखिरकार काम आ गया… सुप्रीम कोर्ट के डंडे से देश को मिल गया लोकपाल… लोकपाल की नियुक्ति को मोदीजी की सरकार भला कैसे अपनी उपलब्धि मान सकती है? उसने तो पांच साल तक लोकपाल नियुक्त ही नहीं होने दिया. जिस नेता प्रतिपक्ष के ना होने की आड़ लेकर इसमें अड़ंगे लगाए गए थे अब उसके बिना ही उसे मजबूरी में लोकपाल का चयन करना पड़ा है. मजबूरी इसलिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कई बार मोहलत देने के बाद इसी सात मार्च को दस दिन के भीतर चयन का अल्टीमेटम दे दिया था.
चयन का जो तरीका 15 मार्च की बैठक में अपनाया गया वह पांच साल पहले भी अपना कर देश को लोकपाल दिया जा सकता था. तब मोदीजी और उनकी सरकार की प्रतिष्ठा ही बढ़ती और यह धारणा निर्मूल साबित होती की वे इस संस्था के प्रति पूर्वाग्रही हैं. सवाल उठने लगा कि क्या मोदी जी को लोकपाल से डर लगता है.
मुख्यमंत्री रहते उन्होंने गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं होंने दी थी. इस मुद्दे पर उनका राज्यपाल कमला बेनीवाल से टकराव हुआ था. इसलिए प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने पहली फुर्सत में राज्यपाल को चलता किया जबकि मध्यप्रदेश के राज्यपाल और व्यापम काण्ड के घोषित आरोपी नंबर दस स्वर्गीय रामनरेश यादव का बाल बांका नहीं हुआ और उन्होंने कार्यकाल पूरा किया. लोकपाल आंदोलन के प्रणेता अन्ना हजारे भले इस नियुक्ति को अपनी मुहिम से जोड़ें पर वे श्रेय लेने के हक़दार नहीं हैं. हां, उनके चलते लोकपाल के लिए जनचेतना जाग्रत हुई. नेताओं को दबाव में आना पड़ा था. श्रेय तब मिलता जब मोदीराज में पहला अनशन किया और सरकार लोकपाल बना दी होती. पर वो अनशन बेनतीजा रहा था. अब सुप्रीम कोर्ट के डंडे के डर से लोकपाल बनाया गया.
लेखक श्रीप्रकाश दीक्षित भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार हैं.