विश्वेश्वर कुमार-
24 घंटों में अपनों के बीच से चार मनहूस सूचनाएं मिलीं, इस रात की कब अंत होगी भगवान
उफ्फ, कोरोना जनित दुखों का अंत ही नहीं हो रहा। हिन्दुस्तान (वाराणसी) के सीनियर रिपोर्टर रमेंद्र सिंह को कोरोना ने हमसे छीन लिया। रमेंद्र जी शिक्षा बीट पर करीब दो दशक से समाचार संकलन का दायित्व निभा रहे थे। दो पारियों में लगभग पांच साल उन्होंने हमारे साथ काम किया। बीएचयू व काशी विद्यापीठ ही नहीं हरेक स्कूल-कालेज और शिक्षा विभाग से जुड़े सभी दफ्तरों पर उनकी गहरी पकड़ थी। इलाहाबाद यूपी बोर्ड आफिस तक की खबरें उनकी जेब में होती थीं।
बीएचयू रमेंद्र जी का पसंदीदा बीट रहा, उनका मेल बाक्स वहां की प्रेस विज्ञप्तियों से भरा रहता था। वहां के आयोजन ही नहीं देर रात होने वाले बवाल उपद्रव के खास कवरेज में रमेंद्र को भेजा करता था। किस्मत देखिए, जिस बीएचयू के कवरेज में रिपोर्टर ने अपनी उम्र खपा दी वहां के अस्पताल में उन्हें आखिरी वक्त पर आक्सीजन का एक बेड उपलब्ध नहीं हो सका। पुराने साथियों ने बताया कि डीएम तक से सिफारिश लगवा कर वे हार गए। जब बीएचयू अस्पताल में बेड नहीं मिला तो उन्हें एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया क्योंकि आक्सीजन का लेबल गिरता जा रहा था। आपदा को अवसर के रूप में देखने वाले निजी अस्पतालों की नजर मरीज और उसके परिजनों की जेब पर होती है। वहां रमेंद्र की हालत में जब सुधार नहीं हुआ और आक्सीजन लेबल गिरकर 30-35 पहुंच गया तो अस्पताल ने जवाब दे दिया। काश सर सुन्दरलाल अस्पताल के आईसीयू में उनको एक बेड मिला होता, बीएचयू की अफसरशाही के आगे जिला प्रशासन ने भी हाथ जोड़ लिए। लंका में ही एक नामचीन निजी अस्पताल में रमेंद्र जी को भर्ती कराया गया लेकिन वेंटीलेटर भी उनकी सांसें नहीं बचा सका। सरकार कोरोना से लड़ने का सिर्फ ढोंग रच रही। रमेंद्र जी चले गए उनकी कोरोना जांच की रिपोर्ट का परिवार इंतजार कर रहा है। वह अपने पीछे बिलखती पत्नी और एक पुत्री छोड़ गए हैं। पुत्री इस साल बोर्ड की परीक्षा देने वाली है।
सिर्फ समाचार जगत नहीं, बनारस शिक्षा क्षेत्र में हर कोई रमेंद्र सिंह का नाम आदर से लेता है। बेहद सौम्य व मिलनसार इस रिपोर्टर के मुंह से हमने कभी ना शब्द नहीं सुना। जब जिस खबर के बारे में कहा गया वह हाजिर रहते थे। सिर्फ शिक्षा नहीं हर बीट से खबरें निकाल लाते थे। राजनीतिक भाषण तो सभी कवर कर लेते हैं, बड़े आपराधिक घटनाक्रम में हमने उनको आजमाया। जब वह आफिस नहीं आते थे, रिपोर्टिंग टीम कुछ अधूरी सी दिखती थी। पान, सिगरेट या मांस-मदिरा तो दूर की बात चाय की तासीर से भी डरते थे। काम के धुन में रात के 2.00 या इससे अधिक हो जाने पर कई बार मैं उनको घर के मोड़ तक छोड़ देता था। पूछने पर भी घरेलू समस्या पर कम ही बोलते थे। शायद जानते थे कि घर परिवार की समस्या से अखबारों का नाता नहीं होता।
गुरुवार को रमेंद्र जी के निधन की सूचना हमारे पुराने साथी अरूण मिश्र ने दी तो मैं ड्राइव कर रहा था। फोन पर उनकी आवाज भर्राई हुई थी, मैंने घबड़ाकर गाड़ी रोक दी। मन व्यथित हो गया, साथ बितायीं यादें एक एक कर सामने आने लगीं। बहुत याद आओगे रमेंद्र भाई।
बुधवार शाम से ही मनहूस खबरों का सिलसिला चल पड़ा। भागलपुर से सूचना मिली कि दैनिक जागरण के सीनियर रिपोर्टर रामप्रकाश गुप्त नहीं रहे। भागलपुर हिन्दुस्तान की पहली पारी में रामप्रकाश जी हमारे साथ बतौर सुपर स्ट्रिंगर समाचार संकलन करते थे। शहर के कण-कण से जुड़े, बेहद जुझारू रिपोर्टर थे। हमने उन्हें महीने दो महीने के लिए देवघर – दुमका भेजकर स्पेशल खबरें लिखवायीं थीं। फिर वह स्टाफ रिपोर्टर के रूप में जागरण चले गए। जब दूसरी बार भागलपुर में संपादक बना तो वह निरंतर संपर्क में रहे। कई बार फील्ड में समाचार संकलन करते मिल जाते, खांटी भागलपुरिया आत्मीय भाव। कोरोना संक्रमित होने के बाद उनको बेहतर इलाज के लिए पटना मेडिकल कालेज ले जाया गया था लेकिन बचाया नहीं जा सका। दो दिन पहले ही उनकी माता जी का निधन हुआ था। हार रे कोरोना… और कितना दुख देगा। रात हुई तो पटना से एक और दुखद सूचना मिली, मेरी पत्नी की सबसे बड़ी मां समान बहन चल बसीं। इसी तरह रांची के एक नजदीकी रिश्ते से मनहूस खबर सुनने को मिली।
आधी रात होने को जा रही, मन की व्यथा बाच रहा हूं। सन्नाटे में कहीं दूर कुत्तों के रोने की आवाज आ रही। क्या सच में कुत्तों का रोना अपसगुनी होता है?
हे भगवान! इस रात की सुबह कब होगी?