~सिद्धार्थ ताबिश
जुकरबर्ग ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके वॉर्डरोब में सिर्फ़ एक कलर की टी शर्ट सिर्फ़ इसलिए होती है क्योंकि वो अपना कीमती समय रोज़ सुबह उठकर इस बात में नहीं बर्बाद करना चाहते हैं कि आज कौन सा कपड़ा पहना जाए.. उस से अच्छा वो अपना ये समय किसी और रचनात्मक चीज़ में लगाना पसंद करते हैं.. यही बात एप्पल के फाउंडर ने भी कही थी और बहुत सारे अन्य लोगों, जिन्होंने इस पृथ्वी पर कुछ नया और नायाब रचा है, कही है।
जब मैंने ये पढ़ा था तो मुझे लगा था ये भी क्या बेवकूफी हुई.. मगर जब मैं खुद उम्र के ऐसे मोड़ पर पहुंचा जहां मेरे लिए मेरा काम ही सब कुछ महसूस होने लगा, तब मैंने महसूस किया कि ये बड़े लोग बिल्कुल सही हैं.. जो मैने इस उम्र में समझा उसे ये लोग बहुत पहले ही समझ गए.. जीवन के किसी एक दौर में अगर आप सच में कुछ रचनात्मक या कुछ नया करना चाहते हैं तो आपको बिल्कुल छोटी से छोटी सामाजिक या घरेलू बातें भी बहुत ज़्यादा “डिस्टर्ब” करने लगती हैं और आप चाहते हैं कि किस तरह इन सब से बचकर आप वो कर सकें जो आप करने के लिए उतावले हैं।
बाहर देश में तो फिर भी सही है मगर भारत जैसे देशों का सामाजिक और पारिवारिक ढांचा आपको सिरे से ही कुछ भी नया और रचनात्मक करने नहीं देता है.. यहां हमारे समाज में न तो इसे कोई समझता है और न ही कोई इसे जानता है.. इसीलिए यहां का युवा कुछ नया कभी रच ही नहीं पाता है.. वो बस बेचारा पश्चिम और अन्य देशों की नकल करके ही जो कुछ बना पाता है वो बनाता है.. नया रचने के लिए वो जो उसके जीवन में उसे “पिन ड्रॉप साइलेंस” की ज़रूरत होती है वो उसे उसका परिवार और समाज कभी देता ही नहीं है।
जबकि ये वो समाज था जहां कर्म को “साधना” या “धर्म” बोला गया.. और ये बात सोलह आने सच है कि आपको अगर अपने कर्म में भी कुछ नया करना होता है तो आपको उसी तरह के एकांत और साधना की ज़रूरत होती है जैसे बुद्ध को थी.. उनके लिए उनका लक्ष्य परम सत्य को जानना था इसलिए उनके घर वालों से लेकर समाज वाले सब “डिस्टर्बिंग एलिमेंट” थे.. जो उन्हें वो कभी पाने ही देते जो वो पाना चाहते थे.. इसलिए उन्हीं सब कुछ छोड़ा.. भारत में युवा सन्यास लेकर आध्यात्म पाने के लिए तो सब कुछ छोड़ देते हैं मगर अगर उन्हें अपनी कंपनी को “यूनिकॉर्न” बनाना होता है या कुछ नया या रचनात्मक करना होता है तो वो घर परिवार के साथ साथ उस लक्ष्य को पाने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं और अंत में एक छोटी मोटी नौकरी, या बड़ी नौकरी, या छोटा या बड़ा बिज़नेस कर के अपने जीवन के अंत को पहुंच जाते हैं।
इसलिए जीवन में या तो आप शादी ब्याह में जाएं, मुंडन, जगराता, छठी, बरही, जन्मदिन वैगरह मनाएं या फिर अगर कुछ नया और रचनात्मक करना है तो इस सब से एकदम किनारा कर लें.. आप या तो हर दूसरे दिन एक नया त्योहार ही मनाते रहें, जो सदियों से आपके बाद दादा मनाते आ रहे हैं.. रिश्तेदार से मिलना, फलाने को अपने घर बुलाना, शादी के लिए दो महीने पहले से कपड़े और जूते पसंद करने की तैयारी करना.. ये सब करें या फिर कुछ नया और इस पृथ्वी और समाज के लिए सार्थक रच कर इस दुनिया से जाएं।
आप दोनो बातें कर सकते हैं.. और दोनो ही एकदम सही है.. बस आपकी पसंद और सोच क्या है उस पर सब कुछ निर्भर है.. बस ये सब करते हुवे आप कभी न तो गूगल बना पाएंगे, न माइक्रोसॉफ्ट, न फेसबुक, और न ही कभी आइंस्टाइन बनेगी और न ही न्यूटन.. हां अम्मा, मौसी, बीबी, खानदान, रिश्तेदार और समाज की बातें मानते हुवे आप फेसबुक, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट में नौकर बन सकते हैं.. बस।