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सुख-दुख

पुनीत जैन ने तेज और रूखे स्वर में पूछा- ‘क्या तुम वामपंथी हो?’

अश्विनी कुमार श्रीवास्तव

Ashwini Kumar Srivastava : पत्रकार बनना है? पहले अपनी पार्टी तो बताइए! देश के ज्यादातर टीवी चैनलों, अखबारों व अन्य मीडिया माध्यमों में इस वक्त वही लोग हावी हैं, जो अगर मीडिया में न होते तो भाजपा, संघ , बजरंगदल आदि कट्टर हिन्दू संगठनों से जुड़कर राजनीति कर रहे होते … या उनकी आईटी / मीडिया/ PR / बुद्धिजीवी सेल/मुखपत्र/ वेबसाइट आदि संभाल रहे होते।

हालांकि एक ही विचारधारा या दल के समर्थक लोगों का वर्चस्व हमारे देश के मीडिया में ही नहीं बल्कि कमोबेश हर सरकारी / निजी क्षेत्र में होना कभी कोई अनूठी या हैरत में डाल देने वाली बात नहीं रही है। मीडिया के लगभग शत प्रतिशत भगवाकरण की इस स्थिति में पहुंचने से काफी पहले यानी देश में पहली बार अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सरकार के आने से भी पहले, देश में मीडिया समेत लगभग हर जगह सिर्फ कांग्रेसी या वामपंथी समर्थक लोग ही भरे पड़े थे। तब शायद ही किसी मीडिया संस्थान में कोई दक्षिणपंथी समूह हावी रहा होगा।

फिर मामला तब से पलटने लगा, जब से अटल सरकार के जरिए सत्ता की ताकत पाते ही संघ ने बड़े पैमाने पर हर जगह अपनी विचारधारा के लोगों को पहुंचाना शुरू कर दिया। मुझे याद है कि अटल सरकार के दौर में ही मैंने केंद्र सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधीन आने वाले आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करके एक साल तक नौकरी पाने के लिए काफी जद्दोजहद की। तब इत्तफाक से मैं अपने बैच के वामपंथी खेमे में गिना जाता था क्योंकि मेरे ज्यादातर मित्र वामपंथी ही थे। इसलिए एक साल बाद नौकरी मिली भी तो यह छिपाकर कि मैं वामपंथी खेमे या विचार से कहीं से भी कभी जुड़ा रहा हूं….

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हुआ यह था कि एक साल भटकने के बाद नवभारत टाइम्स की लिखित परीक्षा जब मैंने पास कर ली तो इंटरव्यू के लिए मुझे बुलाया गया। इंटरव्यू में तत्कालीन संपादक राम कृपाल सिंह और मैनेजमेंट की तरफ से पुनीत जैन बैठे थे। मुझे बुलाने के बाद मेरी वह कॉपी खोल ली गई, जिसमें मैंने एग्जाम के सवालों के विस्तार से जवाब लिखे थे।

उसमें एक सवाल था , जिसके जवाब में मैंने अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में फंडिंग करके तालिबान को खड़ा करने की बात लिखी थी। उसी एक बात को पढ़कर पुनीत जैन ने माथे पर चिंता की गहरी लकीरें लाते हुए तेज और रूखे स्वर में उस लाइन को दोहराते हुए मुझसे पूछा कि क्या तुम वामपंथी हो? एक साल भटकने और उस दौरान अपने सारे दक्षिणपंथी दोस्तों के बड़ी आसानी से नौकरी पा जाने से इतना तो मुझे समझ आ ही चुका था कि भाजपा राज में किसी वामपंथी को नौकरी नहीं मिल सकती। इसलिए हाथ में आई नौकरी को न गंवा दूं, तो मैंने तुरंत ही इनकार किया और देशभक्ति की भी कुछ बातें कर दीं।

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मेरी बातें सुनकर पुनीत जैन ने राहत भरी सांस लेकर कहा कि वामपंथी तो पहले ही यहां हमारी नाक में दम किए हुए हैं। इसके कुछ दिन बाद मुझे वहां नौकरी मिल भी गई।

हालांकि यह सच नहीं है कि मैं वामपंथी हूं या दक्षिणपंथी खेमे का विरोधी हूं या कांग्रेसी हूं या किसी भी और दल से जुड़ा हूं। दरअसल मैं तो हमेशा से ही एक पत्रकार की तरह सत्ता की निरंकुशता या गलत बातों का विरोधी रहा हूं, फिर चाहे वह कोई नेता या दल कर रहा हो। मेरी समझ से तो पत्रकारिता में हम लोगों को यही पढ़ाया भी गया है और हम पत्रकारों का काम भी यही है …. सत्य कितना भी अप्रिय हो, उसे उजागर करना।

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मगर ऐसा तो सिर्फ पढ़ाया ही जाता है। वास्तव में ऐसा ज्यादातर लोग मानते नहीं हैं । उस वक्त भी आईआईएमसी के मेरे बैच में लगभग हर कोई किसी न किसी दल या नेता से जुड़ा ही था। दक्षिणपंथी खेमे में समझे जाने वाले छात्र उस वक्त संघ की शाखाओं में जाते थे या भाजपा नेताओं से जुड़े थे। वे ही आज देश के लगभग हर बड़े मीडिया संस्थान में बढ़िया बढ़िया पदों पर हैं। मगर 2014 में उनके दिन बहुरने से पहले मनमोहन सरकार के दस बरस के कार्यकाल में वह स्लीपर सेल की तरह अपनी बारी आने का लंबा इंतजार भी करते रहे।

इसी तरह मेरे वामपंथी खेमे के ज्यादातर लोग वाम दल या कांग्रेस या क्षेत्रीय / जातिवादी दलों से या उनके नेताओं से उस वक्त से ही सीधे तौर पर जुड़े थे। वे भी आजकल उन इक्का दुक्का गैर भाजपाई मीडिया संस्थानों में हैं, जो मीडिया के भगवाकरण से इसलिए बच गए हैं क्योंकि वे मीडिया संस्थान गैर भाजपा दलों से आर्थिक मदद ले कर ही अपना कारोबार चलाते आए हैं। इसका आरोप भी उन पर बराबर लगता रहता है।

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वैसे, उस वक्त के मेरे कुछ वामपंथी मित्र भी भाजपा राज के इस भगवा वक्त में मीडिया में बड़े पदों पर हैं मगर इसकी प्रमुख वजह शायद यह है कि उन्होंने या तो अपने वामपंथी रुझान / संपर्क पर मौन साध लिया है …या फिर चोला ही बदलकर पूरी तरह से वह भी भगवा ही हो गए हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो बड़े पदों पर रहकर गैर भाजपाई रुझान जारी तो रखे हुए हैं मगर अपने संस्थान में नख दंत विहीन होकर घर के किसी बुजुर्ग की तरह एक कोने में दांत चियारते पड़े रहते हैं और कभी कभार ही अपने होने का एहसास करा पाते हैं….

बहरहाल, जमाना इस वक्त मीडिया में भगवा का है तो हमारे संघी साथी मिलकर सारी मलाई हड़पने में लगे हैं और बाकी दलों के समर्थक मेरे अन्य साथी इस वक्त स्लीपर सेल बनकर ललचाई नज़रों से मीडिया की हंडिया को देख रहे है…. जिसका फूटना कम से कम 2024 तक तो किसी भी सूरत में संभव नहीं लग रहा है.

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दिल्ली में पत्रकारिता करने के बाद लखनऊ में बतौर रियल स्टेट उद्यमी सक्रिय अश्विनी कुमार श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.

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1 Comment

1 Comment

  1. Hem

    April 7, 2020 at 10:57 am

    बिलकुल सटीक.. कमोबेश यही मेरे साथ भी हुआ. जब 2005 मे मैने ईटीवी न्यूज ज्वाइन किया था!
    राजस्जथान के गदीशचंद्रा कातिल ने मिडिया को खरीदने और पत्रकारों को पत्तलकार बनने का रास्ता खोल दिया तब हम जैसे लोगों के ट्रांसफर पर टेरांसफर होने लगे और अंतत: मीडिया को अलविदा ही कहना पड़ा!

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