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सुख-दुख

मौन की महिमा और भाषा का संकट!

~सिद्धार्थ ताबिश

भारत ने जितने दर्शन इस दुनिया को दिए हैं, उतने और किसी देश या प्रांत ने नहीं दिए.. इन्हीं दर्शनों के अध्यायों में व्रत का भी वर्णन होता है.. और तमाम तरह के व्रत में एक है “मौन व्रत”.. ये अब लगभग आऊट ऑफ़ फैशन हो गया है.. और वो इस वजह से हुआ है क्योंकि मॉडर्न भारतीय अब अपने दर्शनों को समझने में समय नहीं व्यर्थ करते हैं.

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मौन की महिमा उन ऋषियों ने समझी जिन्होंने “भाषा” से उपजे भयंकर संकट को पहचाना.. मनुष्य ने जब से “भाषा” का अविष्कार किया, मानव जाति को आसानी तो दी मगर बहुत गहरे संकट में भी डाल दिया.. हम दिन रात, चौबीसों घंटे, 365 दिनों में जितना बोलते हैं, उसका 1% भी हमारे किसी काम का नहीं होता है.. दिन रात जितनी सूचना हम एक दूसरे से साझा करते हैं उनमें से ज्यादातर हमारे किसी मतलब की नहीं होती है.

हरारी ने इसे अपनी पुस्तक में बहुत अच्छे से समझाया है.. भाषा दरअसल सबसे बड़ा कारण था होमो सेपियंस यानि हमारे विकास का और दूसरी प्रजातियों के विनाश का.. उदाहरण के लिए अगर आप पशु पक्षियों को देखें, तो भाषा उनके पास भी होती है, मगर हमारी तरह उन्नत नहीं.. और उन्नत से मतलब ये है कि 1% से भी कम काम की बातें और बाकी सब बेकार की बातें.. जैसे ग्रीन मंकी यानी हरे बंदर का अगर हम उदाहरण लें तो पाते हैं कि जब हमारे जीव विज्ञानियों ने उनकी भाषा को समझा तो पाया कि वो किसी भी बात को सीधे सीधे और कम शब्दों में कहते हैं.. जैसे अगर उन्हें शेर दिखता है तो वो अपनी आवाज़ में ज़ोर से कहते हैं “सावधान शेर”.. उन्हें जब ऊपर गिद्ध दिखता है तो ज़ोर से कहते हैं “सावधान गिद्ध”.. इतना बोलना उनके लिए काफ़ी होता है और इतनी भाषा से ही लाखों करोड़ों साल से वो इस धरती पर “जीवित” बचे हुवे हैं.

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मनुष्य के लिए भी भाषा की इतनी चुनी हुई शब्दावली ही काफ़ी थी.. मगर मनुष्य ने भाषा में काम की बातें कम, बेकार की बातें ज़्यादा जोड़ी.. अगर जंगल में शेर का खतरा हुआ तो मनुष्य ने एक दूसरे को ये कहके नहीं चेताया कि “सावधान शेर”, इसकी जगह पर उसने कहा “अरे सुनो फलाने, वहां अभी शेर देखा है फलाने ने, क्या वो नरभक्षी हो गया है, उसे नदी किनारे देखा गया और वो वहां हिरण खा रहा था, क्या उसने किसी इंसान को भी मारा, हां हां बहुत पहले इसी ने दो आदमियों का शिकार किया था मगर सरकार उसे नरभक्षी घोषित नहीं कर रही है क्योंकि जब तक वो 7 लोगों को नहीं मारेगा उसे नरभक्षी घोषित नहीं किया जाएगा.. वगैरह वगैरह”.

इतनी बातों में कुछ भी काम का नहीं है जो ये दो व्यक्ति बतलाते हुवे शेयर कर रहे हैं.. ये बस बात करते हैं.. ऐसे ही हम बात करते हैं.. सोशल मीडिया पर भी यही सब होता है.. बस चल रहा है सब, कुछ भी अपने काम का नहीं मगर फिर भी हम व्ययस्त हैं उसमें.. दूसरे जानवर ये नहीं करते हैं.. और मनुष्य की 99.9% मानसिक और सामाजिक समस्या इसी भाषा की अधिकता से उपजे कारणों से होती है.. आप अगर इसे सोच पाएंगे तो समझ जायेंगे.

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हमारे ऋषियों ने जब इस समस्या की गंभीरता को समझा तो उन्होंने तमाम व्रत में एक “मौन व्रत” भी जोड़ा.. और इसे व्रत में इसलिए जोड़ा क्योंकि मौन रहनेसे मानसिक, सामाजिक और शारीरिक विकार दूर होते हैं.. और तमाम ऐसे लोग जिन्होंने इसकी गंभीरता को समझा वो सालों साल मौन रहे.. ओशो भी 5 या 6 सालों के लिए मौन व्रत में थे.

आप भी मौन का महत्व समझिए.. और जानिए कि हमारी लगभग सारी सामाजिक और मानसिक समस्याएं इसी “भाषा” की अधिकता से उपजती हैं.. हम जितना दिन भर बोलते हैं कभी कभी उसका 1% भी हमारे किसी काम का नहीं होता है.

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