दिल्ली : अभिषेक श्रीवास्तव लिखते हैं – ‘कविता : 16 मई के बाद’ का आयोजन कई मायनों में ऐतिहासिक रहा। पहला तो इसलिए कि जितने लोगों ने फेसबुक ईवेन्ट पर आने की पुष्टि की थी तकरीबन उतने लोग एक मौके पर वास्तव में मौजूद थे। दस घंटे तक चले कार्यक्रम में तकरीबन शाम छह बजे तक 90 लोग मौजूद रहे, जो दिल्ली जैसे निर्मम शहर में मुश्किल होता है।
दूसरा इतिहास पत्रकार जावेद नक़वी ने बनाया, जिन्हें वैसे तो पहले वैचारिक सत्र में बोलना था, लेकिन जो शाम को आए और अचानक दुनिया के ग्याहवें आश्चर्य की तरह कविता पढ़ दिए। कविताएं बेहतरीन थीं, इसमें भी किसी को शक़ नहीं।
तीसरा इतिहास दो गुप्तचर बंधुओं से जुड़ा है जिनके साथ नाइंसाफी होने से हमने रोक लिया। दरअसल, तकरीबन सब लोग दोपहर में भोजन कर चुके थे लेकिन ये दो भाई खाने का कूपन नहीं मिलने के कारण भूखे बैठे थे। अंत में मैं और पाणिनि जैसे ही मेस में पहुंचे, इन्होंने गुहार लगायी। हमने राष्ट्रीय दायित्व की तरह इनके भोजन का इंतज़ाम किया। दोनों इतने गदगद हुए कि अपनी ड्यूटी बीच में ही छोड़कर खाना खाकर निकल लिए।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक चिंतक उज्ज्वल भट्टाचार्या लिखते हैं- दोस्तों, अपनी क्षमता के अनुसार “16 मई के बाद“ के कविता कार्यक्रमों में भाग लेता रहा। बेहद अफ़सोस है कि इस महत्वपूर्ण आयोजन में शरीक नहीं हो पा रहा हूं। भागीदार साथियों से अपनी राय साझा करना चाहूंगा। विभिन्न शहरों में प्रतिरोध के हिस्से के रूप में इस परियोजना को जो सफलता मिली है, वह अनोखी है। मेरी राय में हम प्रगतिशील सृजनकर्मी एक लंबे समय के बाद अपनी ताकत पहचान पाये हैं, अपनी भूमिका हमारे लिये स्पष्ट होती गई है, आपसी समझ बढ़ी है। हमने अपनी ताकत की सीमाओं को भी देखा है। कभी-कभी हम अपने बीच रहे हैं, पाठकों और श्रोताओं के व्यापक वर्गों तक नहीं पहुंच पाये हैं।
हम प्रगतिशील सृजनकर्मी अक्सर राजनीतिक कर्मी भी हैं, हर हालत में हम एक व्यापक राजनीतिक समझ को बांटते हैं। पिछले साल 16 मई के बाद हमारे लिये एक नई चुनौती सामने आई है। नव उदारीकरण की पिछली सरकार की नीति को हम प्रतिक्रिया का सबसे ज़बरदस्त हमला समझते रहे हैं। नई सरकार आने के बाद उसकी गति और तेज़ हुई है। साथ ही वह उन सारे मूल्यों को नकार रही है, जिनके आधार पर हमारे देश का आधुनिक इतिहास विकसित हुआ है, जिन मूल्यों के स्रोत हमें अपनी प्रगतिशील परंपराओं में मिलते हैं। नव उदारवाद और सामाजिक व सांस्कृतिक प्रतिक्रियावाद के बीच एक नये स्तर की सांठगांठ देखी जा रही है। इसके ख़िलाफ़ राजनीतिक प्रतिरोध में अलग़-अलग़ रूप में हम शरीक होंगे। मैं समझता हूं कि इस सिलसिले में हमारी समझ इतनी व्यापक होनी चाहिये कि हम यथासंभव सभी ताकतों को इस मुहिम में शामिल कर सकें। और सबसे बड़ी बात : हमारी रचनाओं में इस प्रतिरोध की अभिव्यक्ति होगी।
लेकिन मेरी राय में हम सृजनकर्मियों को राजनीतिक प्रतिरोध के कार्यक्षेत्र से कहीं परे तक सोचना, लिखना और काम करना पड़ेगा। एक व्यापक परिदृश्य में से मैं तीन मुद्दों को विशेष रूप से रेखांकित करना चाहूंगा : आदिवासियों व दलितों, अल्पसंख्यकों और औरतों के ख़िलाफ़ प्रतिक्रियावादी ताकतों की ओर से जो हमला छेड़ा गया है, उससे न सिर्फ़ एक राजनीतिक संकट सामने आया है, बल्कि यह हमारी सभ्यता, संस्कृति, हमारे इतिहास का संकट है। मेरा मानना है कि ऐसी हालत में वर्गीय चेतना का तकाज़ा है कि उस सभ्यता, संस्कृति व इतिहास की पक्षधर सभी ताकतों का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश की जाय। इन तीनों के उल्लेख का अर्थ यह नहीं है कि मैं अन्य क्षेत्रों को नज़रंदाज़ कर रहा हूं।
एक तरफ़ अगर कूपमंडुक धर्मवादी अपसंस्कृति लादने की कोशिश हो रही है, तो दूसरी ओर बाज़ारू छिछली अपसंस्कृति हमारी सोच को कुंठाग्रस्त करने की कोशिश कर रही है। ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस सिलसिले में एक अत्यंत नकारात्मक भूमिका अपना रही है। इस घृणित वर्चस्व के ख़िलाफ़ प्रतिवर्चस्व तैयार करने की मुहिम राजनीतिक प्रतिरोध की सीमाओं के परे तक गये बिना संभव नहीं है। हमारी रचनाओं में राजनीतिक प्रतिरोध का आख्यान होगा। लेकिन मेरी राय में हमें सांस्कृतिक प्रतिरोध के तत्वों को कहीं अधिक महत्व देना पड़ेगा। समाज और सृजन के सभी रचनाधर्मी तत्वों का प्रतिनिधित्व आज लगभग एक वर्गीय सवाल बन गया है। सारे स्वस्थ रुझानों को आगे बढ़ाना आज एक क्रांतिकारी मिशन है। वह कूपमंडूक धर्मवादी व बाज़ारू छिछली अपसंस्कृति के ख़िलाफ़ एक मुकम्मल हथियार है। मेरी समझ है कि 16 मई के बाद ये सवाल कहीं अधिक प्रासंगिकता के साथ सामने आये हैं। आयोजन में शामिल साथी अगर मेरी बातों पर गौर करें तो ख़ुशी होगी। सहमति ज़रूरी नहीं है। असहमति से शायद नये विचार सामने आयेंगे।
अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वॉल एवं हस्तक्षेप डॉट कॉम से साभार