नोएडा : कई दिनों से पुराने साथियों की नाराज़गी और उनके शिकायती फोन ने बेहद शर्मिंदा कर रखा है। सहारा में लगभग पांच साल साथ काम करने वाले कई साथी इन दिनों बेहद परेशान हैं। कई कई महीनों से उनकी सेलरी नहीं मिली है। चेयरमैन सुब्रतो राय सहारा कई माह से तिहाड़ में हैं। कई माह से सेलरी न मिलने की वजह से अब सहारा कर्मियों की हिम्मत और सब्र जवाब दे गया। और शुक्रवार को सहारा के प्रबंधन के लाख वादों के बावजूद सहारा कर्मी हड़ताल पर चले गये। लेकिन हमने अभी तक इस पूरे मामले पर कुछ नहीं लिखा।
मेरे कई पुराने साथियों ने ख़ासी नाराज़गी का इज़हार किया। हमको लगा कि चूंकि सहारा में हम भी कई साल रहे हैं, हमारे घर के चूल्हे को जलाने में सहारा के रोल को भुलाया नहीं जा सकता। बस इसी धर्मसंकट के बीच हमने सोचा कि कोई बीच का, और पत्रकार की ज़िम्मेदारी वाला रास्ता निकाला जाए।
दरअसल सहारा में जो कुछ हो रहा है, वो कोई एकदिन की नाकामी या प्लानिंग का नतीजा नहीं है। कई साल वहां पर काम करने के दौरान जो कुछ हमने देखा और महसूस किया, उसका अंजाम तो यही होना था। हांलाकि इस बारे में एक बार हमने सीधे सहाराश्री को अवगत भी कराने की कोशिश की थी, मगर हमारी बात को बीच वालों ने ही मैनेज कर लिया और हमारी चिठ्ठी वहां तक न जा सकी।
दुनिया का सबसे अधिक सदस्यों वाला परिवार और मीडिया समेत पैराबैंकिग और न जाने किन-किन कामों के दम पर अनगिनत लोगों को रोज़गार मुहय्या कराने वाले सहारा का प्रबंधन घोटाले बाज़ है, उसका असल खेल क्या था, ये सवाल अलग है? और इस पर माननीय सुप्रीमकोर्ट की पूरी नज़र है लेकिन जिन लोगों को बड़ी-बड़ी तन्ख़्वाह और बड़े बड़े पदों से नवाज़ा गया था, वो कितने क़ाबिल और वफादार थे, ये सबके सामने आ चुका है! साथ ही कई माह से सैलरी न मिलने के बावजूद सहारा का दामन न छोड़ने वालों को कोई दूसरा संस्थान क्यों नहीं ले रहा, ये भी बड़ा सवाल है?
लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी यही है कि करोड़ों की लागत से खड़े होने वाले एक के बाद एक दर्जनों मीडिया हाउसों के लुटने और उनके बंद होने के दौरान कई बड़े नामों की मंशा और क़ाबलियत पर चर्चा कब और कौन करेगा? क्या इस सबके लिए अकेले सहारा या किसी दूसरे चैनल के चेयरमैन ही ज़िम्मेदार हैं, या मोटी तन्ख्वाह पाने वाले सफेद हाथियों का भी कोई ज़िक्र होगा?
सहारा प्रबंधन क्या सोचता है ये उसका काम है? अपने कर्मियों की सैलरी न देने के पीछे उसकी क्या मजबूरी है… या सेलरी न देने से हज़ारों परिवारों की रोज़ी रोटी के संकट पर अदालत से सहानुभूति पाने की रणनीति…? लेकिन इतना तो तय है कि अब यह तय हो जाना चाहिए कि मीडिया के कौन लोग ऐसे हैं, जिनका नाम ही किसी भी मीडिया हाउस को लूटने या उसके बंद करने के लिए काफी है!
साथ ही सहारा में सैलरी को तरस रहे और आर्थिक संकट से जूझ रहे कर्मियों की हड़ताल में या किसी भी दूसरे संस्थान के मामले में हमारी तमाम हमदर्दी अपने साथियों के साथ ही है क्योंकि बच्चे के स्कूल की फीस और घर में दो वक़्त की रोटी किसी ब्रेकिंग न्यूज़ के बजाए पैसे से ही मुहय्या हो जाती है।
raj
July 11, 2015 at 3:55 pm
yaswant ji kuch naam aap ne hata liye..aap aisa kyon kar rahe ho
Vikash Dwidevi
July 12, 2015 at 10:18 am
tak gaya hu teri naukari se a jindigi musif hoga mera hisab kar de…
Vikash Dwivedi
July 12, 2015 at 10:19 am
tak gaya hu teri naukari se a jindigi munasif hoga mera hisab kar de…