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सुख-दुख

हावड़ा में सन्मार्ग अखबार का मतलब गोपाल यादव था!

उमेश कुमार रे-

अलविदा गोपालजी!!

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गोपाल प्रसाद यादव. एक बेहद सामान्य कदकाठी का अधेड़ आदमी. रोज शाम को हावड़ा से कोलकाता के महात्मा गांधी रोड पर स्थित सन्मार्ग अखबार के दफ्तर में आता. एक फटा-पुराना बैग लटकाये. कपड़े भी पुराने – बेतरतीब से. एक हथेली बेतरह कट गई थी कभी. उसे जोड़ दिया गया था, लेकिन वो टेढ़ा हो गया था.

मोटे पावर वाला चश्मा उनकी नाक पर टिका रहता था.

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मस्तमौला आदमी थे एकदम. उसी दफ्तर में उनके स्कूल के एक दोस्त (मनमोहन मिश्रा सर) सब-एडिटर थे, जिनसे वे खूब हंसी मज़ाक करते थे.

दफ्तर में आकर एक कोने में बैठ जाते. सबसे पहले खैनी खाने के लिहाज से आवाज देते – यार, मनमोहन खैनी खिलाओ.

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खैनी खाने के बाद हाथ से कागज पर खबर लिखकर जमा करते और निकल जाते. सामान्य तौर पर रोज पांच-छह पन्नों में खबर लिखते थे. उन्हें खबरें लीखने का इतना तजुर्बा था कि हाथ से लिखने पर भी कोई शब्द काटने कि गुंजाइश नहीं बनती थी.

उनकी लिखावट बहुत सुंदर थी और नये-नये शब्द और उनके सही इस्तेमाल को लेकर बहुत चौकन्ना रहते थे. वे जहां बैठते थे, उनके पीछे ही सीनियर सब-एडिटर बैठते. गोपालजी कोई नया शब्द इस्तेमाल करते, तो सब-एडिटर्स से जरूर पूछते कि ये प्रयोग सही रहेगा कि नहीं.

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वो सन्मार्ग में स्ट्रिंगर थे. मैं नया नया सन्मार्ग ज्वाइन किया था. गोपाल जी की भाषा में एक खिलंदड़पन था, जो मुझे आकर्षित करता. उस वक्त दफ्तर में जब भी उनकी बात चलती, तो एक शीर्षक चर्चा के केंद्र में आ जाता – “राज की बात राजदार जाने या थानेदार जाने!”

खबर क्या थी, मुझे नहीं पता, लेकिन ये मालूम था कि शीर्षक गोपालजी ने ही लगाया था, जो काफी मशहूर रहा था. ये तब की बात थी, जब सोशल मीडिया का जमाना नहीं था.

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लम्बे समय तक वो सन्मार्ग में स्ट्रिंगर ही रहे और शेर-ओ-शायरी में खासी दिलचस्पी रखते थे. बाद में सन्मार्ग में नई पीढ़ी की आमद हुई, तो हावड़ा बीट एक पुर्णकालिक रिपोर्टर को दे दिया गया और वो बेकार हो गये. उनकी सेहत भी उनका साथ नहीं दे रही थी. काफी समय तक उनकी कोई खबर नहीं थी. खासकर मुझे तो बिल्कुल भी नहीं पता था कि वो क्या कर रहे थे.

आज फेसबुक से पता चला कि वे इस दुनिया में नहीं रहे, तो उनका चेहरा नजरों के सामने घूम गया. वह महज 55 साल के थे. लम्बे समय से बीमार थे.

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जिस अखबार में वे स्ट्रिंगर थे, उसी अखबार में उनके निधन की खबर छपी है.

लेकिन विडम्बना तो ये है कि उसी अखबार में वे लम्बे समय तक स्ट्रिंगर रहे और बेहद कम पैसे में अपनी सेवा देते रहे. जबकि उनके बाद आई पीढ़ी के/की रिपोर्टरों को न हिन्दी आई और न खबरों की समझ मगर अच्छी तनख्वाह मिली.

हावड़ा में सन्मार्ग अखबार का मतलब गोपाल यादव था. मगर सन्मार्ग में गोपाल यादव को कभी वो दर्जा नसीब नहीं हुआ.

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