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सियासत

क्या भाजपा के हाथों बिक गई है AIMIM?

श्याम मीरा सिंह-

ग़ाज़ीपुर ज़िला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में AIMIM के दो ज़िला पंचायत सदस्यों ने भाजपा को वोट डाल दिया है. ये खबर ABP जैसे बड़े चैनल पर चलाई जा रही है. पत्रकारों से लेकर सोशल मीडिया एक्टिविस्टों और सपा-बसपा-कांग्रेस समर्थकों ने भी इसे ऐसे ही लिखा कि देखो ओवैसी की पार्टी के सदस्यों ने भाजपा को वोट कर दिया. इस खबर को विशेष तरजीह देने के पीछे का मंतव्य कुछ और नहीं, बस ये दिखाना है कि ओवैसी की पार्टी विश्वास योग्य नहीं है, उस पर भाजपा की बी टीम होने का जो आरोप है वो सही है. इसलिए मुसलमान इधर उधर न देखकर सपा, बसपा या कांग्रेस को ही वोट करे, अगर उसे भाजपा को हराना है.

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ये सब तब है जब कि AIMIM ने अपने सदस्यों द्वारा भाजपा को वोट देने की खबर को झूठा बताया गया है. इस बात की पड़ताल किए बिना कि AIMIM के सदस्यों ने भाजपा को वोट दिया कि नहीं हम पहले इस बात पर आते हैं कि मीडिया और विपक्षी पार्टियों के समर्थकों के लिए ये खबर इतनी चटकारे लायक़ खबर क्यों है?

क्या ये बात बार-बार गौर करने की नहीं है कि दूर दराज के एक ज़िले में, ज़िला पंचायत के चुनाव में, AIMIM के दो ज़िला पंचायत सदस्यों के भाजपा को वोट करने की खबर दिल्ली में सुर्ख़ियाँ ले जा रही है. जबकि अन्य विपक्षी पार्टियों के कितने ही सदस्य भाजपा में गए लेकिन दिल्ली में एक भी खबर उन पर न बनी. ये हाल तब है जबकि 17 से अधिक ज़िलों में भाजपा निर्विरोध जीती है क्या इन जगहों पर बिना सपा, बसपा, कांग्रेस के सदस्यों की दलाली के भाजपा निर्विरोध जीती है? कांग्रेस के नेता आए दिन हज यात्रा की तरह भाजपा में जाते हैं और लौटकर भी नहीं आते, सपा के कितने सदस्यों ने भाजपा के हाथों दलाली खाई, बसपा के सदस्यों की छोड़िए बसपा की मुखिया ने ही पूरे प्रदेश में भाजपा के साथ अदृश्य गठबंधन किया हुआ है. लेकिन उन पर कोई खबर नहीं आती..

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मैं ये नहीं कह रहा कि क्यों नहीं आती, क्योंकि सब जानते हैं ज़िला पंचायत स्तर के चुनाव धन बल और ताक़त के दम पर जुगाड़े जाते हैं, जहां पार्टी के प्रति कमिटमेंट का कोई मोल नहीं होता, इन चुनावों में आदमी जीतता भी अपने दम पर है इसलिए पार्टी के प्रति इतना जवाबदेह भी नहीं होता, इसलिए मैं ये नहीं कह रहा कि सपा, बसपा, कांग्रेस के सदस्यों के भाजपा में जाने पर खबर क्यों बनती.. मेरा सवाल तो ये है कि AIMIM के दो सदस्यों के भाजपा में जाने पर दिल्ली में खबर क्यों बनती है?

इसका जबाव कोई केलकुलस जितना कठिन नहीं है, न इसके लिए त्रिकोणमिति हल करने की ज़रूरत. इसका स्पष्ट जवाब है कि मुसलमानों का मुफ़्त में वोट लेते आने वाली पार्टियाँ उन्हें एक स्वतंत्र राजनीतिक संस्था की तरह मानती ही नहीं. न उनमें मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों के प्रति कोई सम्मान, उन्हें.. उन्हें वोट करने वाला मुसलमान चाहिए.

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ग़ाज़ीपुर में बस इतना हुआ है कि पहले मुसलमानों की वोट लेकर विपक्षी पार्टियों के नेता भाजपा के हाथों बिक जाते थे, अबकी बार मुसलमानों के वोट लेकर AIMIM के नेता बिक गए होंगे. ऐसा तो नहीं है कि सपा, बसपा या कांग्रेस के सदस्य नहीं बिकते…

विपक्षी सेक्युलर पार्टियाँ चाहती हैं कि मुसलमान उन्हें ही वोट करें, मुसलमान वोटरों के स्वतंत्र अधिकार के प्रति उनके मन में ज़रा भी सम्मान नहीं है….सम्मान संभवतः कठोर शब्द है, मुझे लगता है उन्हें मुसलमानों के स्वतंत्र वोटिंग राइट्स को देखने की आदत नहीं है, या समझ नहीं है. मैं दूसरे वाले विकल्प को ही अधिक सही मानता हूँ कि उन्हें इस बात की समझ नहीं है कि मुसलमान, सिख, जैन या अन्य धार्मिक या नस्लीय समूह एक स्वतंत्र वोटर हो सकते हैं जैसे यादवों की अपनी पार्टियाँ हैं, जैसे ब्राह्मण, बनिया, राजपूतों की पार्टी है, जैसे दलित जातियों की पार्टियाँ हैं, वैसे ही अपने-अपने प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अन्य लोगों की भी पार्टियाँ हो सकती हैं.

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मुसलमानों के वोट लेने वाली पार्टियों को मुसलमानों को अपने exclusive वोट बैंक की तरह देखना बंद कर देना चाहिए, अगर लोकतंत्र, आरक्षण और प्रतिनिधित्व में विश्वास है तो मुसलमानों के साथ अपने पिछलग्गू की तरह बिहेव करने के बजाय बराबर दर्जे के शहरी की तरह बिहेव करना शुरू कर देना चाहिए.

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