एक बड़े कॉलेज के मैनेजिंग डायरेक्टर से बात हुई। हालचाल पूछा तो बोले- हाल तो बेहाल हैं। कोरोना के चलते हॉस्टल खाली हैं। छात्र गायब हैं, छात्रों ने फीस नहीं दी है। एडमिशन का समय है, लेकिन नए छात्र रजिस्ट्रेशन भी नहीं करवा रहे हैं। कमाई पूरी तरह ठप है। कहां से दें अध्यापकों और बाकी कर्मचारियों का का वेतन। बोले-भाई साहब ऐसा ही चलता रहा तो 70 फीसदी प्राइवेट कॉलेज बंद हो जाएंगे। प्राइवेट कॉलेज के अध्यापक आत्महत्या पर मजबूर हो जाएंगे।
कुछ दिन पहले एक मित्र का फोन आया था। कस्बाई इलाके में इंटर तक प्राइवेट स्कूल चलाते हैं। छात्रों ने स्कूल में आना बंद कर दिया तो अभिभावकों ने फीस भी बंद कर दी। अध्यापक से लेकर चपरासी तक पैदल हो गए। मुझसे कहा-सर मीडिया में ये बात उठवाइए, बेलआउट पैकेज तो स्कूल और कॉलेजों को मिलना चाहिए।
मेरे बहुत ही घनिष्ठ मित्र एजुकेशन के बिजनेस में हैं । उनके लाखों रुपये तमाम मेडिकल कॉलेजों में फंसे हैं। कॉलेज पैसे नहीं दे पा रहे हैं और इस पेशे में इतना बैक अप नहीं होता कि वो बहुत दिनों तक अपने पास से कर्मचारियों को वेतन दे पाएं।
गाजियाबाद के एक डेंटल कॉलेज की हालत ये है कि वहां चार महीने से स्टाफ को वेतन नहीं मिला है। मैनेजमेंट ने कह दिया है कि आप चाहे आएं या न आएं आपकी मर्जी। हम तनख्वाह देने की स्थिति में नहीं हैं। कॉलेज में फीस नहीं आ रही है। नीट का इम्तिहान भी आगे बढ़ गया है, जाने कब इम्तिहान होगा, कब नतीजे आएंगे और कब छात्र कॉलेज पहुंचेंगे। नए एडमिशन हो नहीं रहे हैं, कॉलेज में पैसे कहां से आएं। तमाम प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों की हालत खस्ता है। प्राइवेट कॉलेज के कई अध्यापक अब सब्जी और फल बेच रहे हैं। ऐसी खबरें रोज आ रही हैं।
उन अभिभावकों की भी हालत खराब है, जो प्राइवेट नौकरी में रहते हुए छंटनी के शिकार हो गए या फिर बिजनेस में थे और कोराना काल के लॉकडाउन में उनके बिजनेस की रीढ़ ही टूट गई। जिंदगी में दो जून की रोटी के लाले पड़ गए तो बच्चों की फीस का इंतजाम कहां से करें..? ये लोग और आर्थिक दुष्चक्र में फंसे कॉलेज मालिक हर रोज एक नई सुबह का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन अंधेरा छंटने का नाम ही नहीं ले रहा है। कोरोना से बच भी गए तो इस अंधेरे से बचने का उनके पास रास्ता क्या है..?
ये हालत उन मेडिकल, इंजीनियरिंग और सामान्य प्राइवेट कॉलेजों की है, जिनमें फीस अपेक्षाकृत कम है, जो बहुत मशहूर नहीं हैं। जो ग्रामीण या कस्बाई इलाकों में हैं। जो बड़े शहरों में फाइव स्टार स्कूल और कॉलेज हैं, वहां ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। छोटे-छोटे बच्चों की 4-4 घंटे तक ऑनलाइन क्लास चल रही है। बच्चे पस्त हो जा रहे हैं, गार्जियन के सामने नए-नए बहाने बना रहे हैं। बच्चे अवसाद के शिकार भी हो रहे हैं।
ऐसे स्कूलों में फीस न देने का कोई रास्ता नहीं है। कोई मुरव्वत नहीं, फीस नहीं तो नाम कट। अब जहां-तहां से इंतजाम करके लोग फीस भर रहे हैं। यही नहीं तमाम स्कूल तो तय सीमा से ज्यादा फीस ले रहे हैं। वाहन बंद हैं, लेकिन उसकी फीस भी ली जा रही है। स्कूल प्रशासन को अच्छी तरह पता है कि कोरोना काल में अभिभावक संगठित नहीं हो सकते तो इनकी पहले भी चांदी थी, अब भी चांदी है।
मेरे पुत्र भी एक फाइव स्टार प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं। कर तो रहे हैं बीए ऑनर्स, लेकिन फीस देते वक्त मुझे इंजीनियरिंग और मेडिकल में बेटे को पढ़ाने का गौरव महसूस होता है। सैमेस्टर की फीस जमा करने के लिए यूनिवर्सिटी सिर्फ 2 दिन का वक्त देती है। वो भी बिना पूर्व सूचना के। फीस में एक दिन की भी देरी हुई तो लेट पेमेंट के नाम पर करीब हजार रुपये का चूना। ज्यादा देर हो गई तो दोगुनी फीस भी देनी पड़ सकती है।
उन तमाम मध्यमवर्गीय, निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की परेशानियों का कोई अंत नहीं है, जिनके दो या उससे ज्यादा बच्चे हैं। सबकी ऑनलाइन क्लास एक ही वक्त चलनी है। घर में पहले एक स्मार्ट फोन था तो अब जरूरत उससे ज्यादा की है। स्मार्ट फोन पर ऑनलाइन क्लास तो सजा ही है, सही मायने में तो लैपटॉप चाहिए। लेकिन 3-4 बच्चों के लिए 3-4 लैपटॉप का इंतजाम अभिभावक कैसे करेंगे..? अभी एक खबर आई है कि एक आदमी ने अपनी गाय बेचकर बच्चे के लिए मोबाइल खरीदा ताकि बेटा ऑनलाइन पढ़ाई कर ले। अब वो शख्स हर महीने मोबाइल डाटा रिचार्ज करने का पैसा कहां से लाएगा, भगवान जाने।
मेरठ में मेरे एक परिचित के तीन बच्चे हैं, तीनों की क्लास एक ही वक्त शुरू हो जाती है, अड़ोस-पड़ोस से मोबाइल मांगकर लाते हैं। घर में एक लैपटॉप है, उसको लेकर झगड़ा मचता है। मेरी एक पूर्व साथी ने कॉल करके बोला- सर ये स्कूल वाले तो बच्चों की जान ले लेंगे। गाइडलाइन है कि 8वीं तक के छात्रों की ऑनलाइन क्लास डेढ़ घंटे से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, लेकिन स्कूल वाले तो 3 से 4 घंटे तक बेटी को पीस रहे हैं। बेटी शायद दूसरी या तीसरी क्लास में पढ़ रही है।
कोरोना काल में अभिभावक की हालत ये है कि जैसे बच्चा पैदा करना अपराध हो गया है। वहां मुश्किल और भी ज्यादा जहां पति-पत्नी दोनों नौकरी में हैं। उन्हें अपने काम पर जाना है और बच्चे को ऑनलाइन क्लास भी अटेंड करनी है। माता-पिता की गैरमौजूदगी में इंटरनेट पर बच्चा अपनी क्लास के अलावा क्या-क्या देख सकता है, खतरा आप समझ सकते हैं। वो भी बच्चे को किसके भरोसे छोड़कर जाएं..?
अब जरा सरकारी स्कूलों का हाल भी सुनिए। यूपी के प्राइमरी टीचर्स को राशन कार्ड पर मुफ्त राशन बंटवाने की जिम्मेदारी दी गई है। मेरी एक मित्र प्राइमरी स्कूल में अध्यापक है। एक दिन फोन पर बता रही थी-मुफ्त राशन उन्हीं को मिल रहा है, जिनके पास राशन कार्ड है, लेकिन जो वाकई जरूरतमंद हैं, उनमें से ज्यादातर के पास न तो राशन कार्ड हैं और न ही उन्हें राशन मिल रहा है। स्कूल भी चल रहा है, ऑनलाइन पढ़ाना है। अब अगर घर में स्मार्ट मोबाइल फोन की हैसियत होती तो वो सरकारी स्कूलों में क्यों पढ़ते। मेरी मित्र बता रही थी कि 40 बच्चों की क्लास में बमुश्किल दो बच्चों के घर मोबाइल फोन है। पढ़ाई भगवान भरोसे है।
आजतक न्यूज़ चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार विकास मिश्र की एफबी वॉल से।