संजय कुमार सिंह-
कॉरपोरेट के लिए अधिकतम खुदरा मूल्य और किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं.. किसानों को फसल की सही कीमत मिले इसके लिए जरूरी है कि उसे सुरक्षित रखने की अच्छी, व्यावहारिक और किफायती व्यवस्था हो। किसान फसल लेकर बाजार-बाजार घूम नहीं सकता (कानून कुछ भी हो) और ज्यादा दिन तक फसल रख नहीं सकता। ऐसे में खरीदने वाला हमेशा अच्छी स्थिति में होता है और खेती करके हमारे लिए अन्न पैदा करने वाला अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर होता है। विक्रेता वही सफल और फायदे में रहता है जिसके उत्पाद का उचित मूल्य मिलता है और आपदा में अवसर ढूंढ़ सकता है। किसान हमेशा आपदा में रहते हैं और उनकी फसल खरीदने का अवसर वही होता है जब उसे पैसे चाहिए होते हैं और तैयार फसल खराब या सूख रही होती है। ऐसे में किसान मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं होता है। इसलिए, 70 साल में कुछ नहीं करने वाली सरकार ने न्यूनतम कीमत का तरीका बनाया था।
किसानों की शुभचिन्तक सरकार जिसने नोटबंदी से लेकर जीएसटी लागू करने और कश्मीर में धारा 370 खत्म करने से लेकर सरकारी उपक्रमों को बेचने और बैंकों को बंद करने जैसे कई धुंआधार और देशहित वाले कार्य किए हैं, ने अब उस पारंपरिक व्यवस्था को खत्म कर दिया। इसके पक्ष में सुषमा स्वराज का वीडियो भी सोशल मीडिया पर घूम रहा है। कानून कैसे बना, पास हुआ उसकी कहानी अलग है। ‘सरकार’ कह रही है वह किसानों का हित चाहती है। किसानों के हित में खाद का अधिकत्तम मूल्य तय है और पैदावार की न्यूनतम कीमत तय नहीं है। किसानों का उत्पाद खरीदने वाले तय हैं पर भुगतान कैसे करते हैं सबको पता है। किसान हित में उस दिशा में कुछ करने की बजाय न्यूनतम मूल्य तय करने का काम भी सरकार छोड़ना चाहती है। निश्चित रूप से यह काम चोरी नहीं, कमाने वाले को कमाने देना है और इसके लिए जमाखोरी कानून तक को बदला गया है।
कॉरपोरेट के लिए अधिकत्तम मूल्य तय किया जाता है। वही सरकार अब तक किसानों के लिए न्यूनतम मूल्य तय करती थी और अब उससे भी बचना चाहती है। कोई काम नहीं करना चाहे यह उसकी इच्छा है पर उसे सही ठहराने के लिए दूसरों को देश विरोधी बताना एक विशेष राजनीति है और वह अलग मुद्दा है। उसपर फिर कभी, फिलहाल किसान। वादा किसानों को फसल की दूनी कीमत दिलाने का था पर 6000 रुपए देने का अहसान बताया जा रहा है। और परेशानी यह है कि ऐसे (या दूसरे) किसान पिज्जा खा रहे हैं, फुट मसाज करा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि 6000 रुपए से खुश होने वाले किसान और न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करने वाले किसान अलग हैं। और मौके की राजनीति यही है कि उनके अंतर को खूब प्रचारित किया जाए और फूट डालो राज करो चलता रहे। वही हो रहा है।
वरना 6000 रुपए देना रिश्वत देना ही है । अगर राहुल गांधी ने हर गरीब परिवार को 7000 रुपए देने के लिए कहा और वह गलत था तो किसानों के लिए भी गलत है। अगर आप मानते हैं कि राहुल गांधी इस वादे के बावजूद चुनाव नहीं जीते तो मान लीजिए कि आप 6000 रुपए देकर भी नहीं जीते हैं। किसानों के हित में होने का नाटक कर असल में कॉरपोरेट की सेवा की जा रही है। इसे तो हर आदमी समझ रहा है। इससे संबंधित खबरें भी आ रही हैं। पर राजनीतिक चाल किसानों को बांटने की है। पंजाब का किसान, हरियाणा का किसान, खालिस्तान समर्थक किसान और 6000 रुपए लेकर भी विरोध करने वाला किसान या 6000 लेकर विरोध नहीं करने वाला किसान। असल में किसानों के लिए 6000 रुपए नहीं, उनकी फसल का उचित मूल्य ज्यादा जरूरी है और सरकार ने जो किया या करना बता रही है उससे ऐसा नहीं होगा। यह बच्चा-बच्चा समझता है।
दिलचस्प यह है कि फसल और अनाज रखने के लिए सिलो से लेकर एफसीआई के गोदाम और कोल्ड स्टोरेज तक बनाकर, बनावकर और निजी क्षेत्र को ये सुविधा देकर उनके कमाने के साथ किसानों की भलाई का काम किया जा सकता है। कायदे से यह काम सरकार को करना चाहिए था। पहले की सरकार ने नहीं किया। यह सरकार कॉरपोरेट की है। सरकारी उपक्रम बेच रही है तो नया करने से रही। ऐसे में निजी क्षेत्र को ही इसके लिए प्रेरित किया जा सकता था और वह (किराए पर) किसानों के लिए होता तो बात दूसरी होती। लेकिन कमाई तो कॉरपोरेट से होती है इसलिए ख्याल भी उन्हीं का रखना है और किसान समझ रहे हैं कि तैयारी उनका अनाज सस्ते में खरीद कर रखने और आपदा में अवसर ढूंढ़ने की है। असल में गोदाम की सुविधा किसानों के लिए होती तो वे तुरंत बेचने के लिए मजबूर नहीं होते और समय पर भाव मिलने पर बेच सकते थे और गोदाम वाले किराए से कमाई करते पर 8000 प्रतिशत मुनाफा कमाने वाले किसानों के बारे में क्यों सोचें?