Samiratmaj Mishra-
‘आप सेक्युलर हो गए हैं क्या’ के बाद दूसरा दमदार उद्धरण ‘Too much Democracy’ ही दिख रहा है। आपको कोई और भी दिखा हो तो ज़रूर बताइएगा।
वैसे बहुत ही व्यावहारिक बात कही है भाई ने।
Democracy ने बहुत टांग फँसा रखी है, नहीं तो Bureaucracy ने अब तक सब ठीक कर दिया होता।
Atul Chaurasia-
हारवर्ड यूनिवर्सिटी, मैनचेस्टर बिजनेस स्कूल, शिवनिंग स्कॉलरशिप की टू मच डेमोक्रेसी से अपना करियर चमकाने वाले अमिताभ कांत को कम से कम यह कहने का हक नहीं. लोकतंत्र की जिस पाठशाला से वो आते हैं कम से कम उसका ही ख्याल रखना चाहिए. उनकी भाषा उस अभिजात्य वर्ग की भाषा है जिसमें राजा ही राजा है और प्रजा के हिस्से में हिकारत, लाठी और डंडा है.
इस टू मच डेमोक्रेसी ने ही एक चायवाले को प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचाया है. कुलीनता के दायरे में शामिल आदमी की यह भाषा नीति आयोग जैसे पद पर रहने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त और घातक है.
Krishna Kant-
सोशल मीडिया ट्रोल्स को भी लगता है कि डेमोक्रेसी नहीं होनी चाहिए. नीति आयोग वाले अमिताभ कांत को भी लगता है कि देश में डेमोक्रेसी थोड़ी ज्यादा हो गई है. यानी बात अब ट्रोल्स से आगे बढ़ गई है. जिस विचार को अब तक आप ‘फ्रिंज एलीमेंट्स’ और ‘ट्रोल्स’ के विचार समझते आए हैं, उसे अब मुख्यधारा मानने का वक्त है.
योजना आयोग को भंग करके जब नीति आयोग बनाया गया था, तब ऐसा दिखाया गया कि योजना आयोग जैसे कोई आलू छीलने वाली संस्था थी और उसकी जगह नीति आयोग देश के लिए धुआंधार नीतियां बनाएगा.
नीति आयोग ने अब तक क्या किया, ये मेरी समझदारी से परे का मामला है इसलिए इसे छोड़ते हैं.
नीति आयोग के मुखिया अमिताभ कांत को लगता है कि देश में डेमोक्रेसी बहुत ज्यादा हो गई है इसलिए देश में सुधार संभव नहीं है! अब इसका मतलब हुआ कि देश में नीतिगत सुधार या विकास से पहले डेमोक्रेसी से निपटना पड़ेगा. काट छांट कर से छोटा करना पड़ेगा.
डेमोक्रेसी रहती है तो वाकई नेताओं के लिए बड़ा संकट रहता है. खराब कानूनों का विरोध होता है, खराब नीतियों का विरोध होता है, भ्रष्टाचार का विरोध होता है, लूट का विरोध होता है, जनता तरह तरह की मांगें रखती है, जनता में असंतोष पनपता है, जनता अपना मत जाहिर कर सकती है.
नेता की आंख से देखें तो डेमोक्रेसी में वाकई बड़ी गड़बड़ी है. जनता अगर कुछ नहीं कर सकती है तो प्रधानसेवक की पीठ पर पूंजीपति का हाथ रखने वाला मीम ही बनाकर शेयर कर देती है. जनता लाख मजबूर हो, लेकिन दबे छुपे पूछ ही लेती है कि जो अरबों रुपये दबा रहे, जो खरबों उड़ा रहे हो, ये कहां से आ रहा है.
इसलिए, अमिताभ कांत की बात पर सरकार को तेजी से अमल करते हुए डेमोक्रेसी को बर्खास्त करके राजतंत्र बहाल कर देना चाहिए.
देश की अर्थव्यवस्था ऐसे ही नहीं डूबी है. बहुत मेहनत की जा रही है. अमिताभ कांत जैसे लोगों के महान विचारों को पहचानिए जो लोकतंत्र में सर्वोच्च पदों पर बैठकर लोकतंत्र को ही सुधार में बाधा मान रहे हैं.
ऐसी विद्वता पर हजारों एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स कुर्बान!
Kapil Dev-
Too much Democracy : लोकतंत्र की प्रचुरता… नीति (NITI) आयोग के उपाध्यक्ष अमिताभ कान्त ने कल कहा है कि देश में लोकतंत्र की मात्रा ज्यादा हो जाने की वजह से सरकार को कुछ क्षेत्रों में कड़े फैसले लेने में दिक्कत हो रही है!
लोकतंत्र की ये ज्यादा मात्रा क्या है और भारत में इसका क्या स्कोप है, इसपर चर्चा करने से पहले हम नीति आयोग के बारे में कुछ जान लेते हैं!
आजादी के करीब दो साल बाद, 1950 में केंद्रीय स्तर पर एक एजेंसी का गठन हुआ, जिसे नाम दिया गया- योजना आयोग! यह आयोग नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, प्रख्यात इंजीनियर M विश्वेश्वरैया और दुनिया को थर्मल आयोनाइजेशन का सिद्धांत देने वाले विख्यात वैज्ञानिक मेघनाद साहा के दिमाग की उपज थी!
योजना आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू! इस आयोग का गठन देश की विविधता को ध्यान में रखकर किया गया था! हर क्षेत्र में मौजूद संसाधनों का सदुपयोग करते हुए के देश के सर्वांगीण विकास के लिए पांच पांच वर्षों की मियाद तय की गयी और इनपर योजनाबद्ध तरीके से काम किया गया! इन्हें हम “पंचवर्षीय योजनाओं” के नाम से जानते हैं!
शुरुआती दौर में योजना आयोग का मुख्य कार्यक्षेत्र देश के आधारभूत ढांचे में सुधार करना था जिससे देश को कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, यातायात के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया जा सके! समय के साथ आयोग का क्षेत्र और भी व्यापक होता गया!
फिर 2014 में नरेंद्र मोदी आये! 2015 में उन्होंने इसका नाम बदलकर “नीति (National Institution for Transforming India) आयोग” रख दिया!
नीति आयोग को गठित हुए महज पांच साल हुए हैं और इसका उपाध्यक्ष हाथ खड़े कर रहा है कि हमारे बस की बात नहीं है!
वहीं योजना आयोग 60 सालों तक देश के विकास की गाथा लिखता रहा! इस दौरान देश में कई आंतरिक व बाह्य समस्याएं भी आयीं! दुश्मनों के साथ हमने लड़ाइयां भी लड़ीं! लेकिन किसी भी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष ने ये नहीं कहा कि फलां समस्या की वजह से फलां योजना पर काम करना कठिन हो रहा है!
हाँ! राजनीतिक अस्थिरता की वजह से 90 के दशक की कुछ योजनाएं जरूर प्रभावित हुई थीं! क्योंकि यह दशक दंगों का दशक था!
वापस आते हैं उपाध्यक्ष जी के उस बयान पर….
लोकतंत्र की प्रचुरता की बात कही है उन्होंने! क्या है ये लोकतंत्र की प्रचुरता?
आजादी से पहले भारतवासियों को कोई लोकतान्त्रिक अधिकार प्राप्त नहीं थे! सबकुछ ब्रिटिश हुकूमत की मर्जी से होता था! किसान अपने खेत में क्या उगाएगा, छात्र स्कूल जायेगा या नहीं, सरकारी नौकरियों में किसे रखा जायेगा….यहाँ तक कि
एक अदद नमक तक रखने के लिए हम ब्रिटिश हुकूमत पर निर्भर थे!
आजादी मिली! ….और इसके साथ मिले सबको अपने लोकतान्त्रिक अधिकार! जनता को ये हक दिया गया कि वह अपने मन मुताबिक सरकार चुने जो उसके व उसके बच्चों का भविष्य सुधारे! ये सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक जीत थी!
एक ही चुनाव में हर वर्ग की जनता अपने अपने मुद्दों को केंद्र में रखकर मतदान करती है! छात्रों के अपने मुद्द्दे हैं और किसानों के अपने! व्यापारियों के अपने मुद्द्दे हैं और मजदूरों के अपने! महिलाओं के अपने मुद्द्दे हैं और कर्मचारियों के अपने! समुद्र के तट पर बसे राज्यों के अपने मुद्द्दे हैं और पहाड़ी व मैदानी राज्यों के अपने!
….और जब ये सारे मुद्द्दे एक समय में एक बूथ पर इकट्ठे होते हैं तो एक सरकार अस्तित्व में आती है! लोग अपना एक प्रतिनिधि चुनते हैं जो उनकी बात लोकसभा या विधानसभाओं में रखता है!
बात यहीं ख़तम नहीं होती! यदि सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है और मुद्द्दे अनसुलझे रह जाते हैं तो वही जनता सड़कों पर आ जाती है!
इसी को लोकतंत्र की प्रचुरता कहते हैं
इसका मतलब ये है कि आज देश का हर वर्ग सरकार के समक्ष अपनी बात रखने को स्वतन्त्र है, क्योंकि देश में लोकतंत्र प्रचुर मात्रा में है!
अंग्रेजों के समय में ये नहीं था! था भी तो सिर्फ एकाध क्षेत्रों में! ….और हमारे पूर्वजों ने इसी की लड़ाई लड़ी कि हमें और भी क्षेत्रों में लोकतंत्र चाहिए!
फिर क्या वजह है कि नीति आयोग का उपाध्यक्ष लोकतंत्र को ही विकास में बाधक बता रहा है?
वजह है योजना आयोग और नीति आयोग के अध्यक्षों की कार्यशैली!
योजना आयोग के अध्यक्षों का ज्यादातर समय योजनाओं के निर्माण और उनके सफल क्रियान्वयन में व्यतीत हुआ!
नीति आयोग के अध्यक्ष को तो मोर, बतख और तोते से ही फुर्सत नहीं है!