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सियासत

हैव यू नो ऑनर, योर ऑनर?

Deepak Rawat : “कारवां” में छपा एक अत्यंत खोजपूर्ण रिपोर्ताज: मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के दौरान गोगोई के पास ऐसे अनेक मामले आए जिन पर उनके रुख को देख लोग हैरान होते थे कि क्या यह वही जज है जो दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करने वालों में से एक था. रफ़ाल मामले के अलावा जिन अनेक मामलों की उन्होंने सुनवाई की उनमें सब कुछ वैसा ही होता रहा जो सरकार के लिए काफी सुकून पहुंचाने वाला था. इसमें अयोध्या मंदिर विवाद, जम्मू-कश्मीर मेँ अनुच्छेद 370 से संबद्ध मामला, सीबीआई के निदेशक पद से आलोक वर्मा को हटाए जाने का मामला और ऐसे कई मामले शामिल हैं.

Manish Singh : हैव यू नो ऑनर, योर ऑनर? लोकतंत्र के तीन कंगूरे हैं- व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका। एकतरफा जनमत देकर, और विपक्ष को लंगड़ा लूला करके, व्यवस्थापिका को 23 करोड़ वोटों ने ढहा दिया। कार्यपालिका की विश्वसनीयता 353 की मेजोरिटिज्म तले कुचली गयी। मगर न्यापालिका को नपुसंक करने में अकेले रंजन गोगोई का योगदान अविस्मरणीय रहेगा।

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जजों की उस ऐतिहासिक प्रेस कान्फ्रेंस में अविस्मरणीय हुंकार ने एक उम्मीद जगाई थी, कि उभरते अधिनायकवाद के मार्ग में न्यायिक चेक और बैलेन्स की प्रक्रिया तनकर खड़ी रहेगी। मगर गोगोई साहब का तीन सालों का कार्यकाल न्याय की मूल परिभाषा में ही मट्ठा डाल गया।

तीन साल, ज्युडिशयरी के शीर्ष पर एक बड़ा लम्बा वक्त होता है। और ये वक्त बड़ा क्रूशियल, भारत की अनमेकिंग का दौर था। कॉलेजियम के तहत नियुक्तियों, प्रमोशन और ट्रान्सफर के मामलों पर बहुतेरे सवाल हैं। मगर इसे उनकी निजी सल्तनत के फैसलों की तरह इग्नोर करता हूँ। मगर जनता, लोकतंत्र और मानवाधिकार के मसलों पर, उनके फ़ैसलों ने , फैसलों से बचने की प्रक्रिया ने सुप्रीम कोर्ट पर जनता की आस्था को अभूतपूर्व चोट पहुंचाई है।

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उनका दौर, वह दौर रहा है, जहां सड़क पर चलता आदमी भी आने वाले फैसले प्रिडिक्ट कर सकता था। इसके लिए आपको ज्योतिषी या सम्विधानवेत्ता होने की जरूरत नही थी।केवल ये समझना होता कि सत्ता, या सत्ताधारी दल क्या चाहता है।

अंतिम दिनों में मन्दिर मामले में सुनवाई की उनकी अभूतपूर्व उत्कंठा दूसरे मामलों में पूरे कार्यकाल में नही दिखती है। एनआरसी के नाम पर 19 लाख लोग, उनकी सनक का शिकार बने घूम रहे हैं। चार राज्यों में आग लगी हुई है। कश्मीर बन्दी, लॉक डाउन, इलेक्टोरल बांड, विविपैट की गिनती, सीबीआई वर्सज सीबीआई, राफेल जैसे मामलों में सीलबन्द न्याय आखिर उनकी टेबल पर दम तोड़ गया। कौन जाने कितने लिफाफे पहुँचे हों, मगर सबसे स्तब्धकारी लिफाफा तो अब पहुंचा है। लिफाफे में राज्यसभा की सीट है।

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चीफ जस्टिस वह पद है, जो रास्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की गैरमौजूदगी में रास्ट्र का प्रमुख होता है। उस पद पर बैठ चुका व्यक्ति अब राज्यसभा ढाई सौ के झुंड में बैठेगा। कानून बनाएगा.. जिस संविधान का मान वे सुप्रीम पद में बैठकर नहीं रख सके, उसी की बनाई सन्सद के किसी कोने का शो पीस बनेंगे। जिनके साथ पर्दे के पीछे मिलना होता था, अब खुलकर उनके बीच खिलखिलायेंगे। शायद मंत्री भी हो जाएं।

यह सम्मान है, या अपमान?? पदोन्नति है, या पदानवती?? इनाम है, या तोहमत। ये कदम सदा सदा के लिए सुप्रीम कोर्ट के हर फैसले के पीछे जज की नीयत को सवालों के कटघरे में ले जाएगा। जिस लीगल प्रोफेशन ने उन्हें इतनी ऊंचाई दी, उस प्रोफेशन और एक पवित्र इंस्टीट्यूशन को ऐसी गहरी चोट की मिसाल भारतीय इतिहास में नही है।

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मगर इतनी बारीक सोच रखी होती, तो सुप्रीम कोर्ट की गरिमा मटियामेट न करते। अब आप फिर से एक बार कपट भरी शपथ लेंगे, और खुशी खुशी सभासद हो जाएंगे।

योर ऑनर। हैव यू नो ऑनर???

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दीपक रावत और मनीष सिंह की एफबी वॉल से.

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