अभिषेक श्रीवास्तव-
कंगना बेन के ‘2014 में मिली आज़ादी’ वाले बयान से लोग आहत हैं। एक काम किया जाय- अपने आसपास विचर रहे किसिम-किसिम के प्राणियों से पूछिए वे आज़ाद हैं क्या? यदि हैं, तो कब आज़ाद हुए थे? आप आम हिंदुओं से आज़ादी के बारे में पूछिए। वो तीन तरह के जवाब देगा- सैंतालिस में आज़ादी मिली, दूसरा कंगना वाला जवाब और तीसरा, हम अब तक आज़ाद नहीं हैं।
जो अब तक आज़ाद नहीं मानते खुद को, उनमें अतिदक्षिणपंथी, अतिवामपंथी और सामाजिक न्यायवादी विचार छवियों के लोग मिलेंगे। अतिदक्षिणपंथी को संवैधानिक हिंदू राष्ट्र बनने में आज़ादी दिखती है। अतिवामपंथी को क्रांति/समाजवाद में आज़ादी दिख सकती है।
सामाजिक न्यायवादी को ब्राह्मणवाद से मुक्ति में आजादी दिखेगी। ये तीनों काम पेंडिंग हैं, इसलिए इन तीनों का राष्ट्र अभी गुलाम है। थोड़ा और अति में जाएंगे तो जाति/वर्ग से आज़ादी जब तक न मिले, तब तक कुछ लोग राष्ट्र को आज़ाद मानने को तैयार नहीं होंगे।
पीछे चलिए। 1947 में कौन आज़ाद हुआ था? भारतीय राष्ट्र-राज्य? यह तो था ही नहीं उस वक्त, बाद में बना। मिज़ोरम, नगालैंड, मेघालय जैसे कबीलाई इलाके और तमाम रियासतें अपने को कभी गुलाम नहीं मानती थीं। उन्होंने सैंतालिस की आज़ादी को अपनी आज़ादी नहीं माना था। सबको जबरन मनवा लिया गया।
आज भी गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड में बड़ी संख्या में आदिवासी इस देश को अपनी मिल्कियत मानते हैं और कहते हैं कि महारानी विक्टोरिया ने लीज़ पर देश चलाने के लिए देसी अंग्रेजों को दिया है, इसलिए अनुबंध खत्म होते ही वे लाल किले पर चढ़ाई कर देंगे।
कन्हैया कुमार जब आज़ादी का नारा लगा रहे थे और उत्साही लोग उसे दुहरा रहे थे, तो वे क्या खुद को गुलाम माने बैठे थे सैंतालिस से? मुसलमानों से पूछिए, दलितों से पूछिए, आदिवासियों से पूछिए, महिलाओं से पूछिए। सब कह सकते हैं 1947 में भारत आज़ाद हुआ था पर अपने बारे में शायद ये लोग चुप रहें या थोड़ा मुखर होंगे तो गुलामी के दर्द को कोने में बताएंगे।
जब इतने सारे लोग भारत की आजादी से अपनी आजादी को बराबर नहीं बैठा पा रहे, तो कंगना के इंटरव्यू पर काहे का बवाल? हो सकता है कंगना मूर्ख और धूर्त हो, लेकिन जनता का क्या कीजिएगा?
फिलहाल इस देश में आपको दो ही तरह के लोग बहुतायत में मिलेंगे। एक जो कंगना की बात को सही ठहराएंगे। दूसरे, जो देश को अलग-अलग कारणों से आजाद नहीं मानते। 1947 में आजादी मिलने की बात कहने और स्वीकारने वाले लोग वाकई कम मिलेंगे।
आजादी जीके का सवाल होता तो कंगना को हम मूर्ख मान लेते। ऐसा है नहीं। आज़ादी एक अहसास है। यह अहसास न सैंतालिस से पहले सामूहिक था, न आज है। अली सरदार ज़ाफरी पागल नहीं थे जो पूछ रहे थे: कौन आज़ाद हुआ? किस के माथे से गुलामी की सियाही छूटी?
मत भूलिए कि नेहरू, गांधी, अंबेडकर से लेकर जिन्ना सब विदेश से अंग्रेजों की पढ़ाई पढ़कर आए थे। वो बोल दिए और आप मान लिए कि आप आजाद हैं? ऐसे थोड़े होता है। नेहरूजी का अपनी नियति से साक्षात्कार 15 अगस्त सैंतालिस की आधी रात हुआ था। बहुत लोगों का 16 मई 2014 की रात हुआ, जिसमें कंगना भी शामिल हैं।
बहुतों का साक्षात्कार शायद आज से दस साल बाद होगा। कुछ का पचास या सौ साल बाद होगा। जब नियति ही सामूहिक नहीं है तो साक्षात्कार कहां से एक समय पर होगा? ये भारत है। यहां सवा अरब टाइम ज़ोन हैं। कंगना से गिरेंगे तो नेहरू में फंसेंगे। नेहरू से गिरेंगे तो अंबेडकर में फंसेंगे। अंबेडकर से गिरेंगे तो सावरकर में फंसेंगे। फंसिए मत। कंगना पर हंसिए मत।