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सियासत

गोदी मीडिया की रिपोर्टिंग में जानबूझ कर तृणमूल के विकल्प के रूप में बीजेपी को पेश किया जा रहा!

Girish Malviya : बहुत से लोग तर्क देते हैं कि मोदी जी का नोटबन्दी का निर्णय इतना ही खराब होता तो क्या 4 महीने के अंदर हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा दो तिहाई बहुमत से जीतकर आती? चलिए मान लिया… पर अब यह तर्क पश्चिम बंगाल की तृणमूल काँगेस के साथ भी अप्लाई कर लीजिए। सारदा, रोजवैली आदि चिटफण्ड घोटालों में तृणमूल कांग्रेस से जुड़े लोगों को हाथ था। 2011 के विधानसभा चुनाव में 34 वर्षों तक शासन में रहने के बाद माकपा तृणमूल कांग्रेस से पराजित हुई थी। इस घोटाले का घटनाक्रम भी लगभग 2009 से 2014 के बीच का ही है। ममता ने घोटाले की जाँच के लिए SIT का गठन साल 2013 में किया। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने दखल दिया। सीबीआई इन्वॉल्व हुई।

अब बकौल सीबीआई, राजीव कुमार ने SIT प्रमुख रहते हुए तृणमूल के नेताओ से जुड़े सारे सुबूत अपने कब्जे में लिए और नष्ट कर दिए। मान लेते हैं यह सब ममता बनर्जी के इशारे पर किया गया तो उन्होंने अपने वोटरो को ऐसी कौन सी घुट्टी पिलाई जो 2016 में पश्चिम बंगाल की 294 सदस्यीय विधानसभा में ममता बनर्जी की पार्टी को 211 सीटो पर जीत हासिल हो गयी?

अब बात चुनाव की निकल ही आयी है तो जरा 2016 में पश्चिम बंगाल में जीती गयी बीजेपी की सीटों की संख्या पर भी नजर डाल लीजिए। कुल 294 सीटो में बीजेपी सिर्फ 3 सीटों पर ही जीत पायी। वो भी 2016 में, जब मोदीजी को प्रधानमंत्री बने 2 साल पूरे हो गए थे। 2014 में जब मोदी लहर अपने टॉप पर थी तब पश्चिम बंगाल की लोकसभा की 42 सीटों में भाजपा को मात्र 2 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। उसे 2009 की तुलना में सिर्फ 1 सीट का ही फायदा मिला। एक और दिलचस्प आंकड़ा भी समझिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के 17 फीसदी वोट हासिल हुए थे लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा गिरकर 10 फीसदी तक पुहंच गया।

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अब आते हैं 2019 पर। माया अखिलेश के गठबंधन ओर नीतीश की राज्य में बिगड़ती छवि के कारण मोदी समझ चुके हैं कि उत्तर प्रदेश और बिहार में जितनी सीटे उन्होंने 2014 में जीती थी, उसकी आधी भी वह जीतने की पोजिशन में नही हैं। अब इन सीटों की भरपाई कहां से होगी?

उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद पश्चिम बंगाल सबसे अधिक सांसद चुनकर लोकसभा में भेजता है। 42 सीटों पर अमित शाह पूरा जोर लगा रहे हैं। अमित शाह ने प्रदेश नेताओं को लोकसभा की 42 में से कम से कम 22 सीटें जीतने का लक्ष्य दिया है। वैसे प्रदेश भाजपा ने जो चुनावी ब्लूप्रिंट तैयार किया है उसमें कहा गया है कि पार्टी राज्य में कम से कम 26 सीटें जीत सकती है। 2014 में बीजेपी मात्र आठ सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। आंकड़ों के हिसाब से यह नामुमकिन लक्ष्य लग रहा है।

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बंगाल में मजबूत सांगठनिक आधार का न होना बीजेपी के लिए सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए सारा जोर TMC के नेताओं में फूट डालकर उन्हें बीजेपी में शामिल किए जाने में है। मुकुल रॉय इस सिलसिले की पहली कड़ी हैं। आप ध्यान दीजिएगा फिलहाल में जो कमिश्नर वर्सेज सीबीआई का विवाद सामने आया उसमे बीजेपी के नेताओं का सारा जोर इस बात रहा कि ममता TMC नेताओं के इस केस में फंसने पर कुछ नहीं बोलीं लेकिन कमिश्नर को बचाने आगे आईं।

निर्मला सीतारमण का तो बयान था कि अब TMC नेताओं को सोचना चाहिए कि उन्हें क्या करना है। क्या आपने कभी ध्यान दिया कि सारा मीडिया इस विवाद पर लगातार रिपोर्ट दिखाता रहा, जबकि इस बीच आई सारी महत्वपूर्ण खबरों को वह नजरअंदाज करता रहा। वाम की महारैली भी कहीं गायब हो गयी। गोदी मीडिया की इस मैराथन रिपोर्टिंग से पूरे देश में यह संदेश गया कि तृणमूल के सामने बीजेपी ही असली विकल्प है, वाम और कांग्रेस कहीं गिनती में नहीं है, जिस पर सिर्फ हँसा जा सकता है।

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बंगाल के राजनीतिक हलकों इस तथ्य को स्टेबलिश करने की कोशिश की गयी कि बीजेपी के साथ आने पर ही भ्रष्टाचार की जांच से बचा जा सकता है। इसी नैरेटिव को हालिया विवाद में स्टेबलिश करने की कोशिश की गयी है यही असली खेल है।

इंदौर निवासी विश्लेषक गिरीश मालवीय की एफबी वॉल से.

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