हिंदुस्तान वाराणसी के ‘हत्यारा संपादक’ ने एक और जान ली!

दोस्तों,

मैं जो कहने जा रहा हूं, वह कु्द्द लोगों को नागवार लग सकता है। लेकिन यह सत्य है कि हिन्दुस्तान वाराणसी में स्थानीय सम्पादक की प्रताड़ना ने एक और पत्रकार साथी की जान लेने में अहम भूमिका निभाई। कोई शक नहीं कि मंसूर माई अस्वस्थ चल रहे थे, फिर भी यथासम्भव काम कर रहे थे।

जनसत्ता के संपादकजी अपना चंडीगढ़ का सरकारी मकान बचाने के लिए क्या कुछ नहीं कर रहे हैं!

अपन एकदम सही थे। जो सलाह कभी भजनलाल को दी थी, इस पर अगर आज की सरकार भी अमल कर ले तो उसे पत्रकारों और पत्रकारिता की ओर से कभी कोई संकट पैदा नहीं होगा। अपना शुरू से मानना रहा है कि मकान ऐसी चीज है जिसे लेकर कोई भी इंसान कुछ भी कर गुजरने या कितना भी नीचा झुकने के लिए तैयार नजर आता है। उन दिनों भजनलाल पत्रकारों से बहुत परेशान थे। एक बार कहने लगे कि मैंने न जाने कितने पत्रकारों को अपने विवेकाधीन कोटे से प्लाट देकर उन्हें लखपति बनाया पर इन लोगों की आंख में तो सुअर का बाल है मतलब निकलते ही आंखें दिखाने लगते हैं। ऐसे लोगों का क्या क्या किया जाए?

लीजिए, तैयार हो गया ‘संपादक चालीसा’ …मीडिया में श्योर शाट सफलता की कुंजी

हिंदी मीडिया में कुछ साल काम करने के बाद मैंने अनुभव के आधार पर हनुमान चालीसा की तर्ज पर यह संपादक चालीसा लिखी है… इसके नियमित वाचन से वे कनफ्यूज लोग जो नहीं समझ पाते कि आखिर उनका दोष क्या है, सफलता के पथ पर निश्चित ही अग्रसर हो सकेंगे… यह संपादक चालीसा मीडिया में श्योर शाट सफलता की कुंजी है इसलिए इसका रोजाना वाचन और तदनुसार पालन अनिवार्य है… आइए इस रचना के पाठ के पहले सामूहिक रूप से कहें- आदरणीय श्री संपादक महाराज की जय….

संपादक नाम के प्राणी…. आखिर तुम कहां खो गए हो!

एक जमाना था जब किसी भी अख़बार या पत्रिका की पहचान उसके संपादक के नाम से होती थीl  धर्मवीर भारती धर्मयुग की पहचान थे तो साप्ताहिक हिंदुस्तान यानी श्याम मनोहर जोशी थेl सारिका कमलेश्वर के नाम से जानी जाती थी तो दिनमान की पहचान रघुवीर सहाय के नाम से होती थीl यही हाल अखबारों का था। इंडियन एक्सप्रेस को अरुण शौरी के नाम से पहचान मिलती थी तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया में दुआ साहब ही सब कुछ थेl बहुत पहले बंद हो गई इलस्ट्रेटेड वीकली का तो वजूद ही खुशवंत सिंह के नाम पर थाl पराग के संपादक कन्हैया लाल नंदन थे तो कादम्बिनी राजेन्द्र अवस्थी के नाम से जानी और पहचानी जाती थीl किसी अखबार या पत्रिका के मालिक को कोई जाने या न जाने पर उसके संपादक की पहचान किसी की मोहताज नहीं थीl उस ज़माने में मालिक संपादक से बात करने में भी हिचकिचाते थे, उनके काम में दखलंदाजी की बात तो दूर की बात हैl

एक नेतानुमा भूमाफिया और संपादक की सेटिंग सुर्खियों में

हिसार : इन दिनो एक अखबार के संपादक और भिवानी के भूमाफिया बनाम नेता के बीच सेटिंग की हिसार, भिवानी और पानीपत में जोरदार चर्चाएं हैं। सूत्रों के मुताबिक अखबार की हिसार यूनिट का ब्यूरो चीफ इस सेटिंग में विशेष भूमिका निभा रहा है। लगभग हर संडे संपादक के साथ इस भूमाफिया बनाम नेता को हिसार में देखा जा रहा है। 

रीढ़-न-जमीर, नाम ‘संपादक’

जिस संस्थान के लिए पत्रकार जीतोड़ मेहनत करते हैं, ख़बर लिखते हैं, सामाजिक सरोकारों और जनता के हक़ की लड़ाई लड़ते हैं, गरीबों को न्याय दिलाते हैं, बेसहारों का सहारा बनते हैं, उन्हीं संस्थानों का का संपादक प्रतिष्ठान पतन की हद तक आत्मजीवी और बाजारवादी हो चुका है। पत्रकारों की ही लेखनी की बदौलत मीडिया संस्थान तरक्की करते हैं, ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोग पत्रकारों की ही लिखी खबरें पढ़ते हैं, उन्हीं पत्रकारों की बदौलत वाहवाही लूटने के लिए अखबार आत्मप्रचार करते हैं कि हमारी  “खबर का असर”, सबसे पहले हमने उठाई थी ये आवाज, हमने दिलाया न्याय, आदि आदि। लेकिन इस खोखलेपन का पता उस समय चलता है, जब उन पत्रकारों पर मुसीबत पड़ती है, कोई आफत आती है।

संपादक ने प्रबंधन के साथ मिल कर्मचारियों के साथ किया धोखा

महाराष्ट्र के दूसरे सबसे बड़े समाचार पत्र समूह अंबिका पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित हिन्दी दैनिक ‘यशोभूमि’ के संपादक ने प्रबंधन साथ मिलकर कर्मचारी के साथ शर्मनाक छल किया है। बता दें कि समूह के कर्मचारी कंपनी से लंबे समय से मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने की मांग कर रहे थे। परन्तु कंपनी उन्हें हर बार झूठे आश्वासन देकर बहला देती थी। कंपनी के इस रवैये को देखते हुए कर्मचारियों ने कमगार आयुक्त की शरण ली। जहां से कंपनी जैसे-तैसे करके कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी।

सुधर भी जाओ हिंदी के संपादकों….

Dhiraj Kulshreshtha : घटिया तो हमेशा बाजार से अपने आप बाहर होते आए हैं… पत्रकार सब बनना चाहते हैं,कुछ ने तो पैसे लेकर पत्रकार बनाने की दुकानें भी खोल लीं हैं….पैसे देकर आईडी ले जाओ…मौहल्ले में रोब गांठो…घर के बाहर बोर्ड लगा लो। अच्छी रिपोर्ट सबको चाहिए…पर पैसे कोई नहीं खर्च करना चाहता….स्वनामधन्य बड़े प्रकाशनों का भी हाल बेहाल है…पिछले बीस साल में अखबार एक रुपए से बढ़कर तीन रुपए का हो गया…विज्ञापन की रेट दस गुनी बढ़ गई….

मुझे मेरे पक्षपाती संपादक से बचाओ और इन सवालों के जवाब दिलवाओ….

है तो यह किसी फिल्मी धुन पर आधारित गाने का रूपांतरण लेकिन अखबारों पर पूरी तरह से लागू है। अखबार में काम करने वाला कोई कर्मचारी नहीं होगा जो अपने सम्पादक या मैनेजर से पीड़ित न हो। पीड़ित तो अन्य विभाग मसलन विज्ञापन, सर्कुलेशन एकाउंट, एचआर और प्रिंटिंग विभाग में कार्यरत कर्मचारी भी होंगे लेकिन मुद्दा सम्पादक पर इसलिए केन्द्रित है कि यह अखबार की रीढ़ कहलाता है। जिस तरह मरीज के बिना अस्पताल का, छात्र के बिना शिक्षक का, अपराध के बिना पुलिस विभाग का मुवक्किल के बिना वकील या यात्री के बिना बस या ट्रेन का कोई महत्व नहीं है उसी तरह अखबार का सम्पादक के बिना कोई महत्व नहीं है। लेकिन सम्पादक नामक यह संस्था धीरे-धीरे अपना महत्व खोती जा रही है।