अपनी शामों को मीडिया के खंडहर से निकाल लाइये : रवीश कुमार

Ravish Kumar : अपनी शामों को मीडिया के खंडहर से निकाल लाइये…. 21 नवंबर को कैरवान (carvan) पत्रिका ने जज बीएच लोया की मौत पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट छापी थी। उसके बाद से 14 जनवरी तक इस पत्रिका ने कुल दस रिपोर्ट छापे हैं। हर रिपोर्ट में संदर्भ है, दस्तावेज़ हैं और बयान हैं। जब पहली बार जज लोया की करीबी बहन ने सवाल उठाया था और वीडियो बयान जारी किया था तब सरकार की तरफ से बहादुर बनने वाले गोदी मीडिया चुप रह गया।

सच के बजाय झूठ परोसने लगे अखबार!

डॉ. सुभाष गुप्ता

कल शाम न्यूज 24 चैनल पर घूमर पर डांस करते बच्चों पर करणी सेना के लोगों के हमले की खबर देख रहा था। खबर पूरी होते- होते मन खिन्न हो उठा। कल कुछ अखबार पढ़कर भी ऐसा ही हुआ। न्यूज चैनल और अखबार दरअसल हमारी नया जानने की मानसिक जरूरत पूरी करने का एक अहम जरिया हैं। इन्हीं के जरिये हमें ताजातरीन सूचनाएं मिलती हैं, लेकिन अब अखबार से लेकर न्यूज चैनल तक बहुत से ऐसे लोग पहुंच गए हैं, जो या तो काम के इतने दबाव में हैं कि सही और गलत का फैसला करने की स्थिति में ही नहीं बचे हैं। या फिर सही और गलत को निर्णय करना उनकी क्षमता से बाहर है। खबर को सच माना जाता है, लेकिन अब कई बार पूरी खबर पढ़ने या देखने के बाद लगता है कि ये खबर तो सच हो ही नहीं सकती। ये आंशिक सच हो सकती है या फिर निरा झूठ।

रवीश कुमार को क्यों कहना पड़ा- ‘हिन्दी अख़बार सरकारों का पांव पोछना बन चुके हैं, आप सतर्क रहें’

Ravish Kumar : क्या जीएसटी ने नए नए चोर पैदा किए हैं? फाइनेंशियल एक्सप्रेस के सुमित झा ने लिखा है कि जुलाई से सितंबर के बीच कंपोज़िशन स्कीम के तहत रजिस्टर्ड कंपनियों का टैक्स रिटर्न बताता है कि छोटी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर कर चोरी की है। कंपोज़िशन स्कीम क्या है, इसे ठीक से समझना होगा। अखबार लिखता है कि छोटी कंपनियों के लिए रिटर्न भरना आसान हो इसलिए यह व्यवस्था बनाई गई है। उनकी प्रक्रिया भी सरल है और तीन महीने में एक बार भरना होता है। आज की तारीख़ में कंपोज़िशन स्कीम के तहत दर्ज छोटी कंपनियों की संख्या करीब 15 लाख है। जबकि सितंबर में इनकी संख्या 10 से 11 लाख थी। इनमें से भी मात्र 6 लाख कंपनियों ने ही जुलाई से सितंबर का जीएसटी रिटर्न भरा है।

अपने कसबे फलोदी पहुंचे ओम थानवी ने अखबारों की बदलती तासीर पर की यह टिप्पणी

अपने क़सबे फलोदी (राजस्थान) आया हुआ हूँ। 47 डिग्री की रेगिस्तान की गरमी मुझे यहाँ उतना नहीं झुलसाती जितना अख़बारों की बदलती तासीर। अजीबोग़रीब हिंदूकरण हो रहा है। जैसे देश में बाक़ी समाज हों ही नहीं। एक बड़े इलाक़े की ख़बरों के लिए तय पन्ने पर (आजकल पन्ने इसी तरह बँटे होते हैं) आज एक अख़बार में हर एक “ख़बर” किसी-न-किसी हिंदू मंदिर की गतिविधि – मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा, कलश की स्थापना, दान-पुण्य – या संतों के प्रवचनों से  लकदक है। वह पूरा का पूरा पन्ना (पृष्ठ नौ) एक ही धर्म की श्रद्धा में/से अँटा पड़ा है।