
Rajendra Hada
मंगलवार, 20 जनवरी 2015 की शाम भड़ास देखा तो बड़ी निराशा हुई। सिर्फ 250 पत्रकार मजीठिया की लड़ाई लड़ने के लिए आगे आए? दुर्भाग्य से, जी हां दुर्भाग्य से, मैंने ऐसे दो प्रोफेशन चुने जो बुद्धिजीवियों के प्रतीक-स्तंभ के रूप में पहचाने माने जाने जाते हैं। वकालत और पत्रकारिता। दुर्भाग्य इसलिए कि दुनिया को अन्याय नहीं सहने की सलाह वकील और पत्रकार देते हैं और अन्याय के खिलाफ मुकदमे कर, नोटिस देकर, खबरें छापकर मुहिम चलाते हैं लेकिन अपने मामले में पूरी तरह ‘चिराग तले अंधेरा’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। अपनी निजी भलाई से जुडे़ कानूनों, व्यवस्थाओं के मामले में बुद्धिजीवियों के ये दो वर्ग लापरवाही और अपने ही साथियों पर अविश्वास जताते हैं। यह इनकी निम्नतम सोच का परिचय देने को काफी है।